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________________ ६८] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र को पार करने में समुद्यत, जीव-प्रदेशों के साथ चले आ रहे कर्म-सम्बन्ध को विच्छिन्न कर डालने में अभ्युत्थित सप्रयत्न रहते हुए विहरणशील थे। इस प्रकार विहार करते हुए-धर्मयात्रा पर अग्रसर होते हुए एक हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख नामक उद्यान में एक बरगद के वृक्ष के नीचे, ध्यानान्तरिका-आरब्ध ध्यान की समाप्ति तथा अपूर्व ध्यान के अनारंभ की स्थिति में अर्थात् शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्क-सविचार तथा एकत्ववितर्क-अविचार-इन दो चरणों के स्वायत्त कर लेने एवं सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपति और व्युच्छिन्नक्रियअनिवर्ति-इन दो चरणों की अप्रतिपन्नावस्था में फाल्गुणमास कृष्णपक्ष एकादशी के दिन पूर्वाह्न के समय, निर्जल, तेले की तपस्या की स्थिति में चन्द्र संयोगाप्त उत्तराषाढा नक्षत्र में अनुत्तर-सर्वोत्तम तप, बल, वीर्य, आलय-निर्दोष स्थान में आवास, विहार, भावना-महाव्रत-सम्बद्ध उदात्त भावनाएँ, क्षान्ति-क्रोधनिग्रह, क्षमाशीलता, गुप्ति-मानसिक, वाचिक, तथा कायिक प्रवृत्तियों का गोपन-उनका विवेकपूर्ण उपयोग, मुक्तिकामनाओं से छूटते हुए मुक्तता की ओर प्रयाण-समुद्यतता, तुष्टि-आत्म-परितोष, आर्जव-सरलता, मार्दवमृदुता, लाघव-आत्मलीनता के कारण सभी प्रकार से निर्भारता-हलकापन, स्फूर्तिशीलता, सच्चारित्र्य के निर्वाण-मार्ग रूप उत्तम फल से आत्मा को भावित करते हुए उनके अनन्त-अन्त रहित, अविनाशी, अनुत्तरसर्वोत्तम, निर्व्याघात-व्याघातरहित, सर्वथा अप्रतिहत, निरावरण-आवरण रहित, कृत्स्न-सम्पूर्ण, सकलार्थग्राहक, प्रतिपूर्ण-अपनी समग्र किरणों से सुशोभित पूर्ण चन्द्रमा की ज्यों संर्वांशतः परिपूर्ण, श्रेष्ठ केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुए। वे जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुए। वे नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव लोक के पर्यायों के ज्ञाता हो गये। आगति-नैरयिक गति तथा देवगति से च्यवन कर मनुष्य या तिर्यंच गति में आगमन, मनुष्य या तिर्यंच गति से मरकर देवगति या नरकगति में गमन, कार्य-स्थिति, भव-स्थिति, मुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आविष्कर्म-प्रकट कर्म, रह:कर्म-एकान्त में कृत-गुप्त कर्म, तब तब उद्भूत मानसिक वाचिक व कायिक योग आदि के, जीवों तथा अजीवों के समस्त भावों के, मोक्ष-मार्ग के प्रति विशुद्ध भावयह मोक्ष-मार्ग मेरे लिए एवं दूसरे जीवों के लिए हितकर, सुखकर तथा निःश्रेयसकर है, सब दुःखों से छुड़ाने वाला एवं परम-सुख-समापन्न-परम आनन्द युक्त होगा-इन सब के ज्ञाता, द्रष्टा हो गये। भगवान् ऋषभ निर्ग्रन्थों, निर्ग्रन्थियों-श्रमण-श्रमणियों को पाँच महाव्रतों उनकी भावनाओं तथा जीव-निकायों का उपदेश देते हुए विचरण करते। पृथ्वीकाय आदि जीव-निकाय तथा भावना ' युक्त पंच महाव्रतों का विस्तार अन्यत्र ज्ञातव्य है। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के चौरसी गण, चौरसी गणधर, ऋषभसेन आदि चौरासी हजार श्रमण, ब्राह्मी, सुन्दरी आदि तीन लाख आर्यिकाएँ-श्रमणियाँ, श्रेयांस आदि तीन लाख पांच हजार श्रमणोपासक, सुभद्रा आदि पाँच लाख चौवन हजार श्रमणोपासिकाएँ, जिन नहीं पर जिन-सदृश सर्वाक्षर-संयोग-वेत्ता जिनवत् अवितथ-यथार्थ-सत्य-अर्थ-निरूपक चार हजार सात सौ पचास चतुर्दश-पूर्वधर-श्रुतकेवली, नौ हजार १. आचारांगसूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध भावनाध्ययन देखें
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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