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द्वितीय वक्षस्कार ]
प्रेम, प्रशंसा, निन्दा आदि से अप्रभावित, राग आदि की रंजकता से शून्य, जात्य- उत्तम जाति के, विशोधित - अन्य कुधातुओं से अमिश्रित शुद्ध स्वर्ण के समान जातरूप - प्राप्त निर्मल चारित्र्य में उत्कृष्ट भाव से स्थितनिर्दोष चारित्र्य के प्रतिपालक, दर्पणगत प्रतिबिम्ब की ज्यों प्रकट भाव - अनिगूहिताभिप्राय, प्रवंचना, छलना व कपट रहित शुद्ध भावयुक्त, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को विषयों से खींचकर निवृत्ति-भाव से संस्थित रखने वाले, कमल-पत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब - निरपेक्ष, वायु की तरह निरालय - गृहरहित, चन्द्र के सदृश सौम्यदर्शन - देखने में सौम्यतामय, सूर्य के सदृश तेजस्वी - दैहिक एवं आत्मिक तेज से युक्त, पक्षी की ज्यों अप्रतिबद्धगामी - उन्मुक्त विहरणशील, समुद्र के समान गंभीर, मंदराचल की ज्यों अकंप - अविचल, सुस्थिर, पृथ्वी के समान सभी शीत-उष्ण अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्शों को समभाव से सहने में समर्थ, जीव के समान अप्रतिहत - प्रतिघात या निरोध रहित गति से युक्त थे।
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उन भगवान् ऋषभ के किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध - रुकावट या आसक्ति का हेतु नहीं था । प्रतिबन्ध चार प्रकर का कहा गया है - १. द्रव्य की अपेक्षा से, २. क्षेत्र की अपेक्षा से, ३. काल अपेक्षा से तथा ४. भाव की अपेक्षा से ।
द्रव्य की अपेक्षा से जैसे—ये मेरे माता, पिता, भाई, बहिन, (पत्नी, पुत्र, पुत्र- वधु, नाती-पोता, पुत्री, सखा, स्वजन — चाचा, ताऊ आदि निकटस्थ पारिवारिक, सग्रन्थ - अपने पारिवारिक सम्बन्धी जैसे - चाचा का साला, पुत्र का साला आदि चिरपरिचित जन हैं, ये मेरे चाँदी, सोना, (कांसा, वस्त्र, धन) उपकरणअन्य सामान हैं, अथवा अन्य प्रकार से संक्षेप में जैसे ये मेरे सचित्त - द्विपद-दो पैरों वाले प्राणी, अचित्तस्वर्ण, चाँदी आदि निर्जीव पदार्थ, मिश्र – स्वर्णाभरण सहित द्विपद आदि हैं - इस प्रकार इनमें भगवान् का प्रतिबन्ध - ममत्वभाव नहीं था - वे इनमें जरा भी बद्ध या आसक्त नहीं थे ।
क्षेत्र की अपेक्षा से ग्राम, नगर, अरण्य, खेत, खल-धान्य रखने, पकाने आदि का स्थान या खलिहान, आंगनं इत्यादि में उनका प्रतिबन्ध - आशयबंध - आसक्त भाव नहीं था ।
घर,
काल की अपेक्षा से स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर या और भी दीर्घकाल सम्बन्धी कोई प्रतिबन्ध उन्हें नहीं था ।
भाव की अपेक्षा से क्रोध (मान, माया) लोभ, भय, हास्य से उनका कोई लगाव नहीं था ।
भगवान् ऋषभ वर्षावास – चातुर्मास के अतिरिक्त हेमन्त - शीतकाल के महीनों तथा ग्रीष्मकाल के महीनों के अन्तर्गत गांव में एक रात, नगर में पांच रात प्रवास करते हुए हास्य, शोक, रति, भय तथा परित्रासआकस्मिक भय से वर्जित, ममता रहित, अहंकार रहित, लघुभूत - सतत, ऊर्ध्वगामिता के प्रयत्न के कारण हलके, अग्रन्थ- बाह्य तथा आन्तरिक ग्रन्थि से रहित, वसूले द्वारा देह की चमड़ी छीले जाने पर भी वैसा करने वाले के प्रति द्वेष रहित एवं किसी के द्वारा चन्दन का लेप किये जाने पर भी उस ओर अनुराग या आसक्ति से रहित, पाषाण और स्वर्ण में एक समान भावयुक्त, इस लोक में और परलोक में अप्रतिबद्ध — इस लोक के और देवभव के सुख में निष्पिपासित - अतृष्ण, जीवन और मरण की आकांक्षा से अतीत, संसार