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________________ द्वितीय वक्षस्कार] अवधिज्ञानी, बीस हजार जिन-सर्वज्ञ, बीस हजार छह सौ वैक्रियलब्धिधर, बारह हजार छह सौ पचास विपुलमति-मनःपर्यवज्ञानी, बारह हजार छह सौ पचास वादी तथा गति-कल्याणक-देवगति में दिव्य सातोदय रूप कल्याणयुक्त, स्थितिकल्याणक-देवायुरूप स्थितिगत सुख-स्वामित्व युक्त, आगमिष्यद्भद्र-आगामीभव में सिद्धत्व प्राप्त करने वाले अनुत्तरौपपातिक-अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले बाईस हजार नौ सौ मुनि थे। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के बीस हजार श्रमणों तथा चालीस हजार श्रमणियों ने सिद्धत्व प्राप्त कियायों उनके साठ हजार अंतेवासी सिद्ध हुए। भगवान् ऋषभ के अनेक अंतेवासी अनगार थे-उनकी बड़ी संख्या थी। उनमें कई एक मास, (कई दो मास तीन मास, चार मास, पाँच मास, छह मास, सात मास, आठ मास, नौ मास, दस मास, ग्यारह मास, कई एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष, तथा कई अनेक वर्ष) के दीक्षा-पर्याय के थे। औपपातिक सूत्र के अनुरूप अनगारों का विस्तृत वर्णन जानना चाहिए। उनमें अनेक अनगार अपने दोनों घुटनों को ऊँचा उठाये, मस्तक को नीचा किये-यों एक विशेष आसन में अवस्थित हो ध्यान रूप कोष्ठ में-कोठे में प्रविष्ट थे-ध्यान-रत थे-जैसे कोठे में रखा हुआ धान इधर-उधर बिखरता नहीं, खिंडता नहीं, उसी प्रकार ध्यानस्थता के कारण उनकी इन्द्रियाँ विषयों में प्रसृत नहीं होती थीं। इस प्रकार वे अनगार संयम तथा तप से आत्मा को भावित-अनुप्राणित करते हुए अपनी जीवन-यात्रा में गतिशील थे। भगवान् ऋषभ की दो प्रकार की भूमि थी-युगान्तकर-भूमि तथा पर्यायान्तकर-भूमि। युगान्तकरभूमि गुरु-शिष्यक्रमानुबद्ध यावत् असंख्यात-पुरुष-परम्परा-परिमित थी तथा पर्यायान्तकर भूमि अन्तर्मुहूर्त थी (क्योंकि भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त होने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् मरुदेवी को मुक्ति प्राप्त हो गई थी।) ३९. उसभेणं अरहा पंचउत्तरासाढे अभीइछटे होत्था, तंजहा-उत्तरासाढाहिंचुए, चइत्ता गब्भं वक्कंते, उत्तरासाढाहिं जाए, उत्तरासाढाहिं रायाभिसेयं पत्ते, उत्तरासाढाहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअंपव्वइए, उत्तरासाढाहिं अणंते (अणुत्तरे निव्वाघाए, णिरावरणे कसिणे, पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे) समुप्पण्णे, अभीइणा परिणिव्वुए। __ [३९] भगवान् ऋषभ के जीवनगत घटनाक्रम पाँच उत्तराषाढा नक्षत्र तथा एक अभिजित् नक्षत्र से सम्बद्ध हैं। चन्द्रसंयोगप्राप्त उत्तराषाढा नक्षत्र में उनका च्यवन-सर्वार्थसिद्ध-संज्ञक महाविमान से निर्गमन हुआ। च्युत-निर्गत होकर माता मरुदेवी की कोख में अवतरण हुआ। उसी में (चन्द्रसंयोगप्राप्त उत्तराषाढा में ही) जन्म-गर्भावास से निष्क्रमण हुआ। उसी में उनका राज्याभिषेक हुआ। उसी में वे मुंडित होकर, घर छोड़कर अनगार बने-गृहस्थवास से श्रमणधर्म में प्रव्रजित हुए। उसी में उन्हें अनन्त, (अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, उत्तम केवलज्ञान, केवलदर्शन) समुत्पन्न हुआ।
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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