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________________ द्वितीय वक्षस्कार] [४९ भेड़, प्रश्रय-दो खुरों के जंगली पशु, मृग-हरिण, वराह-सूअर, रुरु-मृगविशेष, शरभ-अष्टापद, चँवरजंगली गायें, जिनकी पूंछों के बालों से चँवर बनते हैं, शवर-सांभर, जिनके सींगों से अनेक शृंगात्मक शाखाएँ निकलती हैं, कुरंग-मृग-विशेष तथा गोकर्ण-मृगविशेष—ये होते हैं ? गौतम ! ये होते हैं, किन्तु उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते। (१६) अस्थिणंभंते ! तीसे समाए भरहे वासे सीहाइवा, वग्याइवा, विगदीविगअच्छतरच्छसिआलबिडालसुणगकोकंतियकोलसुणगाइ वा ? हंता अत्थि, णो चेव तेसिं मणुआणं आवाहं वा वाबाहं वा छविच्छेअंवा उप्पायेंति, पगइभद्दया णं ते सावयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! ___ (१६) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में सिंह, व्याघ्र-बाघ, वृक-भेड़िया, द्वीपिक-चीते, ऋच्छ-भालू, तरक्ष-मृगभक्षी व्याघ्र विशेष, शृगाल-गीदड़, विडाल-बिलाव, शुनक-कुत्ते, कोकन्तिकलोमड़ी, कोलशुनक-जंगली कुत्ते या सूअर-ये सब होते हैं ? आयुष्मन् श्रमण गौतम! ये सब होते हैं, पर वे उन मनुष्यों को आबाधा-ईषद् बाधा, जरा भी बाधा, व्याबाधा-विशेष बाधा नहीं पहुंचाते और न उनका छविच्छेद-न अंग-भंग ही करते हैं अथवा न उनकी चमड़ी नोचकर उन्हें विकृत बना देते हैं। क्योंकि वे श्वापद-जंगली जानवर प्रकृति से भद्र होते हैं। (१७) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे सालीइ वा, वीहिगोहूमजवजवजवाइ वा, कलायमंसूर-मग्गमासतिलकुलत्थणिप्फावआलिसंदगअयसिकुसुंभकोद्दवकंगुवरगरालगसणसरिसवमूलगबीआइ वा? हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति। (१७) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में शाली-कलम जाति के चावल, व्रीहि-ब्रीहि जाति के चावल, गोधूम-गेहूँ, यव-जौ, यवयव-विशेष जाति के जौ, कलाय-गोल चने-मटर, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, कुलथी, निष्पाव-वल्ल, आलिसंदक-चौला, अलसी, कुसुम्भ, कोद्रव-कोदों, कंगु-बड़े पीले चावल, वरक, रालक-छोटे पीले चावल, सण-धान्य विशेष, सरसों, मूलक-मूली आदि जमीकंदों के बीज-ये सब होते हैं ? गौतम! ये होते हैं, पर उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते। (१८)अस्थिणं भंते ! तीसे समाए भरए वासे गुड्डाइ वा दरीओवायपवायविसमविज्जलाइ वा? __णो इणद्वे, समटे, तीसे समाए भरहे वासे बहुसमरमणिज्जे भूमिभागेपण्णत्ते,ये जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा०। (१८) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में गर्त-गड्ढे, दरी-कन्दराएँ, अवपात-ऐसे गुप्त खड्डे जहाँ प्रकाश में चलते हुए भी गिरने की आशंका बनी रहती है, प्रपात-ऐसे स्थान, जहाँ से व्यक्ति मन में
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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