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________________ भिक्षु प्रतिमा ३९ पकड़ कर खींचे तो उस प्रतिमाधारी मुनि को उस गृहस्थ को पकड़कर रखना, उसको रोके रखना नहीं कल्पता किन्तु ईर्यासमिति पूर्वक बाहर जाना कल्पता है। प्रतिमाधारी साधु की पगथली में कीला, काँटा, तृण, कंकड़ आदि धंस जाय तो उसे उनको अपने पैर से निकालना नहीं कल्पता, ईर्यासमिति—जागरूकता पूर्वक विहार करना कल्पता है। उसकी आँख में मच्छर आदि पड़ जाएं, बीज, रज, धूल आदि के कण पड़ जाएं तो उन्हें निकालना, आँखों को साफ करना उसे नहीं कल्पता। प्रतिमाधारी साधु बाहर जाकर आया हो या विहार करके आया हो, उसके पैर सचित्त धूल से भरे हों तो उसे उन पैरों से गृहस्थ के घर में आहार-पानी ग्रहण करने प्रवेश करना नहीं कल्पता। प्रतिमाधारी साधु को घोड़ा, हाथी, बैल, भैंस, सूअर, कुत्ता, बाघ आदि क्रूर प्राणी अथवा दुष्ट स्वभाव के मनुष्य, जो सामने आ रहे हों, देखकर वापिस लौटना या पाँव भी इधर-उधर करना नहीं कल्पता। ___यदि सामने आता जीव अदुष्ट हो, कदाचित् वह साधु को देखकर भयभीत होता हो, भागता हो तो साधु को अपने स्थान से मात्र चार हाथ जमीन पीछे सरक जाना कल्पनीय है। प्रतिमाधारी साधु को छाया से धूप में, धूप से छाया में जाना नहीं कल्पता किन्तु जिस स्थान में जहाँ वह स्थित है, शीत, ताप आदि जो भी परिषह उत्पन्न हों, उन्हें वह समभाव से सहन करे। __एकमासिक भिक्षु प्रतिमा का यह विधिक्रम है। जैसा सूचित किया गया है, एक महीने तक प्रतिमाधारी भिक्षु को एक दिन में एक दत्ति आहार तथा एक दत्ति पानी पर रहना होता है। दूसरी प्रतिमा में प्रथम प्रतिमा के सब नियमों का पालन किया जाता है। जहाँ पहली प्रतिमा में एक दत्ति अन्न तथा एक दत्ति पानी का विधान है, दूसरी प्रतिमा में दो दत्ति अन्न तथा दो दत्ति पानी का नियम है। पहली प्रतिमा को कर साधक दसरी प्रतिमा में आता है। एक मास पहली प्रतिमा का तथा एक मास दसरी प्रतिमा का यों - दूसरी प्रतिमा के सम्पन्न होने तक दो मास हो जाते हैं। आगे सातवीं प्रतिमा तक यही क्रम रहता है। पहली प्रतिमा में बताये सब नियमों का पालन करना होता है। केवल अन्न तथा पानी की दत्तियों की सात तक वृद्धि होती जाती है। . आठवीं प्रतिमा का समय सात दिन-रात का है। इसमें प्रतिमाधारी एकान्तर चौविहार उपवास करता है । गाँव नगर या राजधानी से बाहर निवास करता है। उत्तानक—चित्त लेटता है। पार्श्वशायी—एक पार्श्व या एक पासू से लेटता है या निषद्योपगत—पालथी लगाकर कायोत्सर्ग में बैठा रहता है। इसे प्रथम सप्त-रात्रिंदिवा-भिक्षु-प्रतिमा भी कहा जाता है। नौवीं प्रतिमा या द्वितीय सप्त-रात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमा में भी सात दिन-रात तक पूर्ववत् तप करना होता है। साधक उत्कटुक–घुटने खड़े किए हुए हों, मस्तक दोनों घुटनों के बीच में हो, ऐसी स्थिति लिये हुए पंजों के बल सम्पूर्ण क बैठे। लगंडशायी—बांकी लकड़ी को लगंड कहा जाता है। लगंड की तरह कुब्ज होकर या झुककर मस्तक व पैरों की एड़ी को जमीन से लगाकर पीठ से जमीन को स्पर्श न करते हुए अथवा मस्तक एवं पैरों को ऊपर रखकर तथा पीठ को जमीन पर टेक कर सोए।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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