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औपपातिकसूत्र अनासक्ति आदि की दृष्टि से वह वर्णन बड़ा उपादेय एवं महत्त्वपूर्ण है, उसका सारांश इस प्रकार है
पहली प्रतिमा (एकमासिक प्रतिमा) में प्रतिपन्न साधु शरीर की शुश्रूषा तथा ममता का त्याग कर विचरण करता है। व्यन्तर-देव, अनार्य-जन, सिंह, सर्प आदि के उपसर्ग—कष्ट उत्पन्न होने पर वह शरीर के ममत्व का त्याग किए स्थिरतापूर्वक उन्हें सहन करता है । कोई दुर्वचन कहे तो उन्हें क्षमा--भाव से वह सहता है। वह एक दत्ति आहार ग्रहण करता है । दत्ति का तात्पर्य यह है कि दाता द्वारा भिक्षा देते समय एक बार में साधु के पात्र में जितना आहार पड़ जाय, वह एक दत्ति कहा जाता है। पानी आदि तरल पदार्थों के लिये ऐसा है, देते समय जितने तक उनकी धार खण्डित न हो, वह एक दत्ति है। कइयों ने दत्ति का अर्थ कवल भी किया है।
___ प्रतिमाप्रतिपन्न भिक्षु, भगवान् ने जिन-जिन कुलों में से आहार-पानी लेने की आज्ञा दी है, उनसे बयालीस दोषवर्जित आहार लेता है। वह आहार लेते समय ध्यान रखता है कि कुटुम्ब के सभी व्यक्ति भोजन कर चुके हों, श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण—भूखे, प्यासे को दे दिया गया हो, गृहस्थ अकेला भोजन करने बैठा हो। ऐसी स्थितियों में वह भोजन स्वीकार करता है। दो, तीन, चार, पांच आदमी भोजन करने बैठे हों, तो वहाँ वह भिक्षा नहीं ले सकता । गर्भवती स्त्री के खाने के लिए जो भोजन बना हो, उसके खाये बिना वह आहार नहीं ले सकता। बालक के लिए जो भोजन हो, उसके खाये बिना उसमें से भिक्षा लेना उसके लिए कल्पनीय—स्वीकरणीय नहीं है। शिशु को स्तन-पान कराती माता शिशु को छोड़कर यदि भिक्षा दे तो वह नहीं लेता। वह दोनों पाँव घर के अन्दर रख कर दे या घर के बाहर रख दे तो वह आहार ग्रहण नहीं करता। देने वाले का एक पाँव घर की देहली के अन्दर तथा एक पाँव घर की देहली के बाहर हो, तो प्रतिमाधारी साधु के लिए वह आहार कल्पनीय है। प्रतिमाधारी साध के भिक्षा ग्रहण करने के तीन काल हैं—आदिकाल, मध्यकाल तथा अन्तिमकाल। इनमें से मध्यम काल में भिक्षार्थ जाने वाला प्रथम तथा अन्तिम काल में नहीं जाता है।
एकमासिक प्रतिमा-प्रतिपन्न साधु छह प्रकार से भिक्षा ग्रहण करता है, यथा—परिपूर्ण पेटी या सन्दूक के आकार के चार कोनों के चार घरों से, आधी पेटी या सन्दूक के आकार के दो कोनों के घरों से, गोमूत्रिका के आकार के घरों से—एक घर एक तरफ का, एक घर सामने का, फिर एक घर दूसरी तरफ का—यों स्थित घरों से, पतंगवीथिका—पतिंगे के आकार के फुटकर घरों से, शंखावर्त शंख के आकार के घरों से-एक घर ऊपर का, एक घर नीचे का, फिर एक घर ऊपर का, फिर एक घर नीचे का—ऐसे घरों से गत-प्रत्यागत-सीधे पंक्तिबद्ध घरों से भिक्षा ग्रहण करता है।
प्रतिमाप्रतिपन्न भिक्षु उस स्थान से एक ही रात्रि प्रवास कर विहार कर जाए, जहाँ उसे कोई पहचानने वाला हो। जहाँ कोई पहचानता नहीं हो, वहाँ वह एक रात, दो रात प्रवास कर विहार कर जाए। एक, दो रात से वह अधिक रहता है तो उसे दीक्षा-क्षेद या परिहार का प्रायश्चित्त लेना होता है।
प्रतिमाप्रतिपन्न साधु के लिए चार प्रयोजनों से भाषा बोलना कल्पनीय है—१. आहार आदि लेने के लिए, २. शास्त्र तथा मार्ग पूछने के लिए, ३. स्थान आदि की आज्ञा लेने के लिए, ४. प्रश्नों का उत्तर देने के लिए।
प्रतिमाधारी साधु जिस स्थान में रहता हो, वहाँ कोई आग लगा दे तो उसे अपना शरीर बचाने हेतु उस स्थान से निकलना, अन्य स्थान में प्रवेश करना नहीं कल्पता। यदि कोई मनुष्य उस मुनि को आग से निकालने आए, बांह