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________________ भिक्षु प्रतिमा ३७ आयम्बिल, एक उपवास, चार आयम्बिल, एक उपवास-यों उत्तरोत्तर बढ़ते-बढ़ते सौ आयम्बिलों तक यह क्रम चलता है। इस तप में १+२+३+४+५+६+७+८+९+१०+११+१२+१३+१४+१५+१६+१७+१८+१९+२०+२१+२२+२३+२४ +२५+२६+२७+२८+२९+३०+३१+३२+३३+३४+३५+३६+३७+३८+३९+४०+४१+४२+४३+४४+४५+४६+४७ +४८+४९+५०+५१÷५२+५३+५४+५५+५६+५७+५८+५९+६०+६१+६२+६३+६४+६५+६६+६७+६८+६९ +७०+७१+७२+७३+७४+७५+७६+७७+७८+७९+८०+८१+८२+८३+८४+८५+८६+८७+८८+८९ + ९० +९१ +९२+९३+९४+९५ +९६+९७+९८+९९+१०० = ५०५० आयम्बिल + १०० उपवास - ५१५० दिन चवदह वर्ष तीन महीने बीस दिन लगते हैं। वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत आगम की वृत्ति में इस तप का जो क्रम दिया है, उसके अनुसार पहले एक उपवास, फिर एक आयम्बिल, फिर उपवास, दो आयम्बिल, उपवास, तीन आयम्बिल, उपवास, चार आयम्बिल—यों सौ तक क्रम चलता है।' अर्थात् उन्होंने इस तप का प्रारम्भ उपवास से माना है पर जैसा ऊपर उल्लेख किया गया है, अन्तकृद्दशांग सूत्र में आयम्बिल पूर्वक उपवास का क्रम है। वही प्रचलित है तथा आगमोक्त होने से मान्य भी । भिक्षु प्रतिमा भिक्षुओं की तितिक्षा त्याग तथा उत्कृष्ट साधना का एक विशेष क्रम प्रतिमाओं के रूप में व्याख्यात हुआ है। वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि ने स्थानांग' सूत्र की वृत्ति में प्रतिमा का अर्थ प्रतिपत्ति, प्रतिज्ञा तथा अभिग्रह किया भिक्षु एक विशेष प्रतिमा, संकल्प या निश्चय लेकर साधना की एक विशेष पद्धति स्वीकार करता है। प्रतिमा शब्द प्रतीक या प्रतिबिंब का भी वाचक है। वह क्रम एक विशेष साधन का प्रतीक होता है या उसमें एक विशेष साधना प्रतिबिम्बित होती है, इसी अभिप्राय से वहाँ अर्थ-संगति है । = प्रतिमा का अर्थ मापदण्ड भी है। साधक जहाँ किसी एक अनुष्ठान के उत्कृष्ट परिपालन में लग जाता है, वहाँ वह अनुष्ठान या आचार उसका मुख्य ध्येय हो जाता है। उसका परिपालन एक आदर्श, उदाहरण या मापदण्ड का रूप ले लेता है अर्थात् वह अपनी साधना द्वारा एक ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है, जिसे अन्य लोग उस आचार का प्रतिमान स्वीकार करते हैं । समवायांग' सूत्र में साधु के लिए १२ प्रतिमाओं का निर्देश है। भगवती सूत्र में १२ प्रतिमाओं की चर्चा है । स्कन्दक अनगार ने भगवान् की अनुज्ञा से उनकी आराधना की। दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं कक्षा में १२ भिक्षु प्रतिमाओं का विस्तार से वर्णन है । तितिक्षा, वैराग्य, आत्मनिष्ठा, १. २. ३. ४. 'आयंबिल वद्धमाणं' ति यत्र चतुर्थं कृत्वा आयामाम्लं क्रियते, पुनश्चतुर्थं पुनर्द्वे आयामाम्ले, पुनश्चतुर्थं, पुनस्त्रीणि आयामाम्लानि, एवं यावच्चतुर्थं शतं चायामाम्लानां क्रियत इति । — औपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र ३१ स्थानांगसूत्र वृत्ति, ३१/१८४ समवायांगसूत्र, स्थान १२/१ भगवतीसूत्र, २/१/५८-६१
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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