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औपपातिकसूत्र दण्डायतिका डण्डे की तरह लंबा होकर अर्थात् पैर फैलाकर बैठे या लेटे, गाँव आदि के बाहर रहे।
दशवीं भिक्षु-प्रतिमा या तृतीय सप्त-रात्रिंदिवा भिक्षु-प्रतिमा का समय भी पहले की तरह सात दिन-रात का है। साधक पूर्ववत् गाँव, नगर आदि से बाहर रहे । गोदुहासन —गाय दुहने की स्थिति में बैठे या वीरासन की के ऊपर बैठे हुए मनुष्य के नीचे से कुर्सी निकाल लेने पर जैसी स्थिति होती है, साधक उस आसन से बैठे या आम्रकुब्जासन—आम के फल की तरह किसी खूटी आदि का सहारा लेकर सारे शरीर को अधर रख कर रहे। अहोरात्रि भिक्षु-प्रतिमा
इस प्रतिमा में चौविहार बेला करे, गाँव से बाहर रहे। प्रलम्बभुज हो—दोनों हाथों को लटकाते हुए स्थिर रखे। एकरात्रिक भिक्षु-प्रतिमा
__इस प्रतिमा में चौविहार तेला करे। साधक जिन मुद्रा में दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखते हुए, सम-अवस्था में खड़ा रहे । प्रलम्बभुज हो—हाथ लटकते हुए स्थिर हों। नेत्र निर्निमेष हों झपके नहीं। किसी एक पुद्गल पर दृष्टि लगाये, कुछ झुके हुए शरीर से अवस्थित हो आराधना करे। सप्तसप्तमिका भिक्षु-प्रतिमा ___इसका कालमान ४९ दिन का है, जो सात-सात दिन के सात सप्तकों या वर्गों में बँटा हुआ है। पहले सप्तक में पहले दिन एक दत्ति अन्न, एक दत्ति पानी, दूसरे दिन दो दत्ति अन्न, दो दत्ति पानी, यों बढ़ाते हुए सातवें दिन सात दत्ति अन्न, सात दत्ति पानी ग्रहण करने का विधान है : शेष छह सप्तकों में इसी की पुनरावृत्ति करनी होती है।
इसका एक दूसरे प्रकार का भी विधान है। पहले सप्तक में प्रतिदिन एक दत्ति अन्न, एक दत्ति पानी, दूसरे सप्तक में प्रतिदिन दो दत्ति अन्न, दो दत्ति पानी। यों क्रमशः बढ़ाते हुए सातवें सप्तक में सात दत्ति अन्न तथा सात दत्ति पानी ग्रहण करने का विधान है। ___अष्टमअष्टमिका, नवमनवमिका, दशमदशमिका प्रतिमाएँ भी इसी प्रकार हैं । अष्टमअष्टमिका में आठ-आठ दिन के आठ अष्टक या वर्ग करने होते हैं, नवमनवमिका में नौ-नौ दिन के नौ नवक या वर्ग करने होते हैं, दशमदशमिका में दश-दश दिन के दश दशक या वर्ग करने होते हैं, अन्न तथा पानी की दत्तियों में पूर्वोक्त रीति से आठ तक, नौ तक तथा दश तक वृद्धि की जाती है। इनका क्रमशः ६४ दिन, ८१ दिन तथा १०० दिन का कालमान
लघुमोक-प्रतिमा
यह प्रस्रवण सम्बन्धी अभिग्रह है। द्रव्यतः नियमानुकूल हो तो प्रस्रवण की दिन में अप्रतिष्ठापना, क्षेत्रतः गाँव आदि से बाहर, कालतः दिन में या रात में, शीतकाल में या ग्रीष्मकाल में। यदि भोजन करके यह प्रतिमा साधी जाती है तो छह दिन के उपवास से समाप्त होती है। बिना खाये साधी जाती है तो सात दिन से पूर्ण होती है।
महामोक-प्रतिमा की भी यही विधि है। केवल इतना सा अन्तर है, यदि वह भोजन करके स्वीकार की जाती है तो सात दिन के उपवास से सम्पन्न होती है। यदि बिना भोजन किए स्वीकार की जाती है तो आठ दिन के उपवास से पूर्ण होती है।