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________________ रत्नावली २७ आत्मा उज्ज्वल होती जाती है। अनशनतपमूलक तपस्या करने वाला साधक, आहार के अभाव में जो शारीरिक कष्ट होता है, उसे आत्मबल तथा दृढ़तापूर्वक सहन करता है । वह पादार्थिक जीवन से हटता हुआ आध्यात्मिक जीवन का साक्षात्कार करने को प्रयत्नशील रहता है । अनशन के लिए उपवास शब्द का प्रयोग बड़ा महत्त्वपूर्ण है। 'उप' उपसर्ग 'समीप' के अर्थ में है तथा वास का अर्थ निवास है। यों उपवास का अर्थ आत्मा के समीप निवास करना होता है । कहने का अभिप्राय यह है साधक अशन — भोजन से, जो जीवन की दैनन्दिन आवश्यकताओं में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, विरत होने का अभ्यास इसलिए करता है कि वह दैहिकता से आत्मिकता या बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता की ओर गतिशील हो. सके, आत्मा का शुद्ध स्वरूप, जिसे अधिगत करना, जीवन का परम साध्य है, साधने में स्फूर्ति अर्जित कर सके । अतएव उपवास का जहाँ निषेधमूलक अर्थ भोजन का त्याग है, वहाँ विधिमूलक तात्पर्य आत्मा के अपने आपके समीप अवस्थित होने या आत्मानुभूति करने से जुड़ा है। जैनधर्म में अनशनमूलक तपश्चरण का बड़ा क्रमबद्ध विकास हुआ। तितिक्षु एवं मुमुक्षु साधकों का उस ओर सदा से झुकाव रहा। प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के अन्तेवासी उन श्रमणों की चर्चा है, जो विविध प्रकार से तप:कर्म में अभिरत थे । यहाँ संकेतित कनकावली, एकावली, लघुसिंहनिष्क्रीडित, महासिंहनिष्क्रीडित आदि तपोभेदों का विश्लेषण पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक सिद्ध होगा । रत्नावली अन्तकृद्दशांग सूत्र के अष्टम वर्ग में विभिन्न तपों का वर्णन है। अष्टम वर्ग के प्रथम अध्ययन में राजा कूप्रिक की छोटी माता, महाराज श्रेणिक की पत्नी काली की चर्चा है। काली ने भगवान् महावीर से श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। उसने आर्याप्रमुखा श्री चन्दनबाला की आज्ञा से रत्नावली तप करना स्वीकार किया । रत्नावली का अर्थ रत्नों का हार है। एक हार की तरह तपश्चरण की यह एक विशेष परिकल्पना है, जो बड़ी मनोज्ञ है। वहाँ रत्नावली तप के अन्तर्गत सम्पन्न किये जाने वाले उपवास क्रम आदि का विशद वर्णन है । १. तणं सा काली अज्जा अण्णया कयाइ जेणेव अज्जचंदणा अज्जा, तेणेव उवागया, उवागच्छित्ता एवं वयासी इच्छामि गं अज्जाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी रयणावलिं तवं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंधं करेहि । तए णं सा काली अज्जा अज्जचंदणाए अब्भणुण्णाया समाणी रयणावलिं तवं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहाचउत्थं चोद्दसमं छटुं सोलसमं अ अट्ठाई चउत्थं छटुं अमं दसमं दुवालसमं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करे, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । अट्ठारसमं वीसइमं बावीस मं चउवीसइमं छव्वीस मं अट्ठावीसइमं तीस मं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं फारेइ । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करे, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करे, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करे, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे । करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे ।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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