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चम्पाधिपति कूणिक भेड़िये, बैल, घोड़े, मनुष्य, मगर, पक्षी, साँप, किन्नर, रुरु, अष्टापद चमर, हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र उस पर बने हुए थे। उसका स्पर्श मृगछाला, कपास, बूर, मक्खन तथा आक की रूई के समान कोमल था। वह आकार में सिंहासन जैसा था।
इस प्रकार वह शिलापट्टक मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप—मन को अपने में रमा लेने वाला और प्रतिरूपमन में बस जाने वाला था। चम्पाधिपति कूणिक
__११- तत्थ णं चंपाए णयरीए कूणिए णामं राया परिवसइ-महयाहिमवंत-महंतमलय-मंदरमहिंदसारे, अच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंससुप्पसूए, णिरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे, बहुजणबहुमाणपूइए, सव्वगुणसमिद्धे, खत्तिए, मुइए, मुद्धाहिसित्ते, माउपिउसुजाए, दयपत्ते, सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, मणुस्सिदे, जणवयपिया, जणवयपाले, जणवयपुरोहिए, सेउकरे, केउकरे, णरपवरे, पुरिसवरे, पुरिससीहे, पुरिसवग्घे, पुरिसासीविसे, पुरिसपुंडरीए, पुरिसवरगंधहत्थी, अड्डे, दित्ते, वित्ते, विच्छण्णिविउलभवण-सयणासण-जाण-वाहणाइण्णे, बहुधण-बहुजायरूव-रयए, आओगपओगसंपउत्ते, विच्छड्डियपउरभत्तपाणे, बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूए, पडिपुण्णजंतकोसकोट्ठागाराउधागारे, बलवं, दुब्बलपच्चामित्ते, ओहयकंटयं, निहयकंटयं, मलियकंटयं, उद्धियकंटयं, अकंटयं,
ओहयसत्तुं, निहयसत्तुं, मलियसत्तुं, उद्धियसत्तुं, निजियसत्तुं, पराइयसत्तुं, ववगयदुब्भिक्खं, मारिभयविप्पमुक्कं, खेमं, सिवं, सुभिक्खं, पसंतडिंबडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरइ।
११- चम्पा नगरी का कूणिक नामक राजा था, जो वहाँ निवास करता था। वह महाहिमवान् पर्वत के समान महत्तर तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र (संज्ञक पर्वतों) के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए था। वह अत्यन्त विशुद्ध दोषरहित, चिरकालीन—प्राचीन राजवंश में उत्पन्न हुआ था। उसके अंग पूर्णतः राजोचित लक्षणों से सुशोभित थे। वह बहुत लोगों द्वारा अति सम्मानित और पूजित था, सर्वगुणसमृद्ध–सब गुणों से शोभित क्षत्रिय थाजनता को आक्रमण तथा संकट से बचाने वाला था। वह सदा मुदित'–प्रसन्न रहता था। अपनी पैतृक परम्परा द्वारा, अनुशासनवर्ती अन्यान्य राजाओं द्वारा उसका मूर्धाभिषेक राजाभिषेक या राजतिलक हुआ था। वह उत्तम मातापिता से उत्पन्न उत्तम पुत्र था।
वह स्वभाव से करुणाशील था। वह मर्यादाओं की स्थापना करने वाला तथा उनका पालन करने वाला था। वह क्षेमंकर सबके लिए अनुकूल स्थितियाँ उत्पन्न करने वाला तथा क्षेमंधर—उन्हें स्थिर बनाये रखने वाला था। वह परम ऐश्वर्य के कारण मनुष्यों में इन्द्र के समान था। वह अपने राष्ट्र के लिए पितृतुल्य, प्रतिपालक, हितकारक, कल्याणकारक, पथदर्शक तथा आदर्श उपस्थापक था। वह नरप्रवर—वैभव, सेना, शक्ति आदि की अपेक्षा से मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा पुरुषवर—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों में उद्यमशील पुरुषों में परमार्थ-चिन्तन के कारण श्रेष्ठ था। कठोरता व पराक्रम में वह सिंहतुल्य, रौद्रता में बाघ सदृश तथा अपने क्रोध को सफल बनाने के
टीकाकार आचार्य श्री अभयदेवसूरि ने 'मुदित' का एक दूसरा अर्थ निर्दोषमातृक भी किया है। उस सन्दर्भ में उन्होंने उल्लेख किया है-"मुइओ जो होइ जोणिसुद्धोति।"
- औपपातिक सूत्र वृत्ति, पत्र ११