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________________ ७०. परिवाइय पर - निन्दा करने वाले । भगवती में अवर्णवादी को किल्विषक कहा है। ७१. भूइकम्मिय— ज्वरग्रस्त लोगों को भूति (राख) देकर नीरोग करने वाले । बार-बार सौभाग्य वृद्धि के लिए कौतुक, स्नानादि करने वाले । ७२. भुजो भुज्जो कोउयकारक सात निह्नव विचार का इतिहास जितना पुराना है उतना ही पुराना है विचार-भेद का इतिहास । विचार व्यक्ति की उपज है। वह संघ में रूढ होने के बाद संघीय कहलाता है। सुदीर्घकालीन परम्परा में विचार-भेद असम्भव नहीं है। जैन परम्परा में भी विचार-भेद हुए हैं। जो जैन धर्मसंघ से सर्वथा पृथक् हो गए, उन श्रमणों का यहाँ उल्लेख नहीं मिलता। यहाँ केवल उनका उल्लेख है, जिनका किसी एक विषय में मतभेद हुआ, जो भगवान् महावीर के शासन से पृथक् हुए, पर जिन्होंने अन्य धर्म को स्वीकार नहीं किया। इसलिए वे जैन- शासन के एक विषय के अपलाप करने वाले निह्नव कहलाये। वे सात हैं। उनमें से दो भगवान् महावीर के कैवल्य-प्राप्ति के बाद हुए और शेष पांच निर्वाण के पश्चात् हुए। १२६ इनका अस्तित्व-काल श्रमण भगवान् महावीर के कैवल्य प्राप्ति के चौदह वर्ष से निर्वाण के पश्चात् पाँच सौ चौरासी वर्ष तक का | १२७ १. बहुरत — भगवान् महावीर के कैवल्य प्राप्ति के चौदह वर्ष पश्चात् श्रावस्ती में बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई । १२८ इसके प्ररूपक जमाली थे । बहुरतवादी कार्य की निष्पत्ति में दीर्घकाल की अपेक्षा मानते हैं। वह क्रियमाण को कृत नहीं मानते, अपितु वस्तु के पूर्ण निष्पन्न होने पर ही उसका अस्तित्व स्वीकार करते हैं। २. जीवप्रादेशिक भगवान् महावीर के कैवल्य-प्राप्ति के सोलह वर्ष पश्चात् ऋषभपुर १९ में जीवप्रादेशिकवाद की उत्पत्ति हुई।३° इसके प्रवर्तक तिष्यगुप्त थे । जीव के असंख्य प्रदेश हैं, परन्तु जीवप्रादेशिक मतानुसारी जीव के चरम प्रदेश को ही जीव मानते हैं, शेष प्रदेशों को नहीं । ३. अव्यक्तिक— भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के दो सौ चौदह वर्ष पश्चात् श्वेताम्बिका नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई । १३१ इसके प्रवर्त्तक आचार्य आसाढ़ के शिष्य थे । अव्यक्तवादी के शिष्य अनेक थे। अतएव उनके नामों का उल्लेख उपलब्ध नहीं है। मात्र उनके पूर्वावस्था के गुरु का नामोल्लेख किया गया है। नवांगी टीकाकार ने भी इस आशय का संकेत किया है । १३२ ४. सामुच्छेदिक भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के दो सौ बीस वर्ष के पश्चात् मिथिलापुरी में समुच्छेदवाद की १२५. भगवती सूत्र, १ / २ १२६. णाणुप्पत्तीय दुदे, उप्पण्णा णिव्वुए सेसा । १२७ : चोद्दस सोलह वासा, चोद्दस वीसुत्तरा य दोण्णिसया । अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया उ चोयाला ॥ पंचसया चुलसीया.... 1 १२८. चउदस वासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्स । तो बहुरयाण दिट्ठी सावत्थीए समुप्पन्ना ॥ १२९. ऋषभपुरं राजगृहस्याद्याह्वा । १३०. सोलसवासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्स । जीवपएसिअदिट्ठी उसभपुरम्मि समुप्पन्ना ॥ १३१. चउदस दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । अव्वत्तगाण दिट्ठी, सेअबिआए समुप्पन्ना ॥ १३२. सोऽमव्यक्तमतधर्माचार्यो, न चायं तन्मतप्ररूपकत्वेन किन्तु प्रागवस्थायामिति । [३३] आवश्यकत, गाथा- ७८४ आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा-७८३-७८४ आवश्यक भाष्य, गाथा - १२५ - आवश्यकनिर्युक्ति दीपिका, पत्र - १४३ ―――― आवश्यकभाष्य, गाथा १२७ आवश्यकभाष्य, गाथा १२९ • स्थानांग वृत्ति, पत्र - ३९१.
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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