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उपयोग करते थे। अन्य रंग-बिरंगे वस्त्रों का उपयोग न कर केवल गेरुए वस्त्र पहनते थे। अन्य किसी भी प्रकार के सुगन्धित लेपों का उपयोग न कर केवल गंगा की मिट्टी का उपयोग करते थे। ये निर्मल छाना हुआ और किसी के द्वारा दिया हुआ एक प्रस्थ जितना जल पीने के लिए ग्रहण करते थे।
अम्बड़ परिव्राजक और उनके सात सौ शिष्यों का उल्लेख प्रस्तुत आगम में हुआ है। जैन साहित्य के वृहत् इतिहास१९ में तथा 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज' ग्रन्थों में अम्बड़ परिव्राजक के सात शिष्य होना लिखा है पर वह ठीक नहीं है। मूल शास्त्र में सत्त अंतेवासीसयाई' पाठ है। उसका अर्थ सात सौ अंतेवासी होता है, न कि सात। अम्बड़ परिव्राजक का वर्णन जैन साहित्य में दो स्थलों पर आया है-औपपातिक में और भगवती में । अम्बड़ परिव्राजक'२० नामक एक व्यक्ति का
और उल्लेख है, जो आगामी चौबीसी में तीर्थंकर होगा। औपपातिक में आये हुए अम्बड़ महाविदेह से मुक्त होंगे।१२१ इसलिए दोनों पृथक्-पृथक् होने चाहिए।
- भीषण ग्रीष्म ऋतु में जल प्राप्त होने पर भी उन्हें कोई व्यक्ति देने वाला न होने से सात सौ शिष्यों ने अदत्त ग्रहण नहीं किया और संथारा कर शरीर का परित्याग किया। अम्बड़ और उसके शिष्य भगवान् महावीर के प्रति पूर्ण निष्ठावान् थे। अम्बड़ अवधिज्ञानी भी था। वह औद्देशिक, नैमित्तिक आहार आदि नहीं लेता था। आजीवक श्रमण
६२. दुघरंतरिया- एक घर में शिक्षा ग्रहण कर उसके पश्चात् दो घरों से भिक्षा न लेकर तृतीय घर से भिक्षा लेने वाले।
६३. तिघरंतरिया- एक घर से भिक्षा ग्रहण कर तीन घर छोड़ कर भिक्षा लेने वाले। ६४. सत्तघरंतरिया-एक घर से भिक्षा ग्रहण कर सात घर छोड़ कर भिक्षा लेने वाले। ६५. उप्पलबेंटिया- कमल के डंठल खाकर रहने वाले। ६६. घरसमुदाणिय- प्रत्येक घर से भिक्षा ग्रहण करने वाले। ६७. विजुअंतरिया-बिजली गिरने के समय भिक्षा न लेने वाले। ६८. उट्टियसमण—किसी बड़े मिट्टी के बर्तन में बैठ कर तप करने वाले।
आजीवक मत का संस्थापक गोशालक था। भगवती सूत्र २२ के अनुसार वह महावीर के साथ दीर्घकाल तक रहा था। वह आठ महानिमित्तों का ज्ञाता था१२३ और उसके श्रमण उग्र तपस्वी थे।९२४ अन्य श्रमण
६९. अत्तुक्कोसिय-आत्म-प्रशंसा करने वाले।
११९. (क) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग २, पृ. २५ (ख) जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. ४१८
- डॉ. जगदीशचन्द जैन १२०. स्थानांग, ९वाँ सूत्र ६१ १२१. (क) यश्चौपपातिकोपाङ्गे महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सम्भाव्यते । -स्थानांग वृत्ति, पत्र-४३४ (ख) दीघनिकाय के अम्बट्ठसुत्त में अंबटु नाम के एक पंडित ब्राह्मण का वर्णन है। निशीथचूर्णि पीठिका में महावीर अम्बटू को धर्म में स्थिर करने के लिए राजगृह पधारे थे।
- निशीथ चू. पीठिका, पृ. २० १२२. भगवती सूत्र, शतक १५वाँ १२३. पंचकल्प चूर्णि १२४. (क) स्थानांग–४/३०९ (ख) हिस्ट्री एण्ड डाक्ट्रीन्स आफ द आजीविकाज - ए. एल. वाशम
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