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४३. परमहंस-जो सरिता के तट पर या सरिता के संगम-प्रदेशों में रहते और जीवन की सांध्य बेला में चीर. कोपीन. कुश आदि का परित्याग कर प्राणों का विसर्जन करते थे। - ४४. बहुउदय-जो गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात रहते हों।
४५. कडिव्वय-जो घर में रहते हों तथा क्रोध, लोभ और मोह रहित होकर अहंकार आदि का परित्याग करने में प्रयत्नशील हों।
४६. कन्नपरिव्वायग- कृष्ण परिव्राजक अर्थात् नारायण के परम भक्त । ब्राह्मण परिव्राजक
४७.कण्डु-अथवा कण्ण। ४८. करकण्डु ४९. अम्बङ-ऋषिभासित, थेरीगाथा १३ और महाभारत'२४ में भी अम्बड परिव्राजकों के सम्बन्ध में उल्लेख है।
५०. परासर-सूत्रकृतांग'१५ में परासर को शीत, उदक और बीज रहित फलों आदि के उपभोग से सिद्ध माना गया है। उत्तराध्ययन १६ की टीका में द्वीपायन परिव्राजक की कथा है। उसका पूर्व नाम परासर था।
५१. कण्हदीवायण-कण्हदीवायण जातक'१७ और महाभारत १८ में इनका उल्लेख है। ५२. देवगुप्त
५३. नारय-नारद। क्षत्रिय परिव्राजक
५४. सेलई ५५. ससिहार [ससिहार अथवा मसिहार ?] ५६. णग्गई [नग्नजित्] ५७. भग्गई ५८. विदेह ५९. रायाराय ६०. रायाराम ६१.बल
ये परिव्राजक गण वेदों और वेदांगों में पूर्ण निष्णात थे। दान और शौच धर्म का उपदेश देते थे। इनका यह अभिमत था—जो पदार्थ अशुचि से सने हुए हैं, वे मिट्टी आदि से स्वच्छ हो जाते हैं। वैसे ही हम पवित्र आचार, निरवद्य व्यवहार से, अभिषेक-जल से अपने को पवित्र बना सकते हैं एवं स्वर्ग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिव्राजक नदी, तालाब, पुष्करणी प्रभृति जलाशयों में प्रवेश नहीं करते और न किसी वाहन का ही उपयोग करते। न किसी प्रकार का नृत्य आदि खेल देखते। वनस्पति आदि का उन्मूलन नहीं करते और न धातुओं के पात्रों का ही उपयोग करते। केवल मिट्टी, लकड़ी और तुम्बी के पात्रों का
११३. थेरी गाथा-११६ ११४. महाभारत-१/११४/३५ ११५. सूत्रकृतांग-३/४/२/३, पृ. ९४-९५ ११६. उत्तराध्ययन टीका-२, पृ. ३९ ११७. कण्हदीवायण जातक-४, पृ. ८३-८७ ११८. महाभारत-१/११४/४५
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