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________________ ३७. सेवालभक्खी— केवल शैवाल को खाकर जीवन-यापन करने वाले। ललितविस्तर" में भी इस सम्बन्ध में वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के तापस थे, जो मूल, कंद, छाल, पत्र, पुष्प और बीज का सेवन करते थे और कितने सड़े गले हुए मूल, कन्द, छाल, पत्र आदि द्वारा अपना जीवन-यापन करते थे। दीघनिकाय आदि में भी इस प्रकार के वर्णन हैं। इनमें से अनेक तापस पुनः पुनः स्नान किया करते थे, जिससे इनका शरीर पीला पड़ जाता था । ये गंगा के किनारे रहते थे और वानप्रस्थाश्रम का पालन करते थे । ये तपस्वीगण एकाकी न रह कर समूह के साथ रहते थे। कोडिन्नदिन और सेवालि नाम के कितने ही तापस तो पाँच सौ-पाँच सौ तापसों के साथ रहते थे। ये गले सड़े हुए कन्द-मूल, पत्र और शैवाल का भक्षण करते थे । उत्तराध्ययन१७ टीका में वर्णन है कि ये तापसगण अष्टापद की यात्रा करने जाते थे । वन-वासी साधु तापस कहलाते थे ।१०८ ये जंगलों में आश्रम बनाकर रहते थे । यज्ञ-याग करते, पंचाग्नि द्वारा अपने शरीर को कष्ट देते। इनका बहुत सारा समय कन्द-मूल और वन के फलों को एकत्रित करने में व्यतीत होता था । व्यवहारभाष्य" में यह भी वर्णन है कि ये तापस- गण ओखली और खलिहान के सन्निकट पड़े हुए धानों को बीनते और उन्हें स्वयं पकाकर खाते। कितनी बार एक चम्मच में आये, उतना ही आहार करते या धान्य- राशि पर वस्त्र फेंकते और जो अन्न कण उस वस्त्र पर लग जाते, उन्हीं से वे अपने उदर का पोषण करते थे । प्रव्रजित श्रमण परिव्राजक श्रमण ब्राह्मण-धर्म के लब्धप्रतिष्ठित पण्डित थे। वशिष्ठ धर्म-सूत्र के अनुसार वे सिर मुण्डन कराते थे। एक वस्त्र या चर्मखण्ड धारण करते थे। गायों द्वारा उखाड़ी हुई घास से अपने शरीर को ढँकते थे और जमीन पर सोते थे । ११० ये आचार - शास्त्र और दर्शन - शास्त्र पर विचार, चर्चा करने के लिए भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण करते थे । वे षडंगों के ज्ञाता होते थे । उन परिव्राजकों में कितने ही परिव्राजकों का परिचय इस प्रकार है— ३८. संखा- सांख्य मत के अनुयायी । ३९. जोई— योगी, जो अनुष्ठान पर बल देते थे । ४०. कपिल — निरीश्वरवादी सांख्य, जो ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता नहीं मानते थे । ४१. भिउच्च भृगु ऋषि के अनुयायी । ४२. हंस— जो पर्वत की गुफाओं में, रास्तों में, आश्रमों में, देवकुलों और आरामों में रह कर केवल भिक्षा के लिए गाँव में प्रवेश करते थे । षड्दर्शनसमुच्चय १११ और रिलीजन्स ऑव दी हिन्दूज १२ में भी इनका उल्लेख आया है। १०५. ललितविस्तर, पृ. २४८ १०६. दीघनिकाय, १, अम्बडसुत्त, पृ. ८८ १०७. उत्तराध्ययन टीका, १० पृ. १५४, अ १०८. निशीथचूर्णि - १३/४४०२ की चूर्णि १०९. (क) व्यवहारभाष्य - १० / २३-२५ (ख) मूलाचार - ५-५४ ११० (क) वशिष्ठ धर्मसूत्र - १० - ६ / ११ (ख) डिक्सनरी ऑव पाली प्रोपैर नेम्स, जिल्द २, पृ. १५९, मलालसेकर (ग) महाभारत - १२/१९०/३ १११. षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. ८ ११२. रिलीजन्स ऑप दी हिन्दूज, जिल्द-१, पृ. २३१ - लेखक एच. एच. विल्सन [३०]
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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