________________
अवश्य करना चाहिए।३ बुद्ध ने अपने आपको तपस्वी कहा। उनके साधना-काल का वर्णन और पूर्व जन्मों के वर्णन में उत्कृष्ट तप का उल्लेख हुआ है । उन्होंने सारिपुत्त के सामने अपनी उग्र तपस्या का निरूपण किया।४ सम्राट् बिम्बिसार से कहा- मैं अब तपश्चर्या के लिए जा रहा हूँ। मेरा मन उस साधना में रमता है। यह पूर्ण सत्य है कि बुद्ध अज्ञानयुक्त केवल देह - दण्ड को निर्वाण के लिए उपयोगी नहीं मानते थे। ज्ञानयुक्त तप को ही उन्होंने महत्त्व दिया था। डॉ. राधाकृष्णन् ने लिखा है— बुद्ध कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, तथापि यह आश्चर्य है कि बौद्ध श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रन्थों में वर्णित अनुशासन (तपश्चर्या) से कम कठोर नहीं है। यद्यपि शुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि से वे निर्वाण की उपलब्धि तपश्चर्या के अभाव में भी सम्भव मानते हैं, फिर भी व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक सा प्रतीत होता है।
बौद्ध दृष्टि से तप का उद्देश्य है— अकुशल कर्मों को नष्ट करना। तथागत बुद्ध ने सिंह सेनापति को कहा हे सिंह ! एक पर्याय इस प्रकार का है, जिससे सत्यवादी मानव मुझे तपस्वी कह सकें। वह पर्याय है— पापकारक अकुशल धर्मों को तपाया जावे, जिससे पापकारक अकुशल धर्म गल जायें, नष्ट हो जायें और वे पुनः उत्पन्न नहीं हों ।
जैनधर्म की तरह बौद्धधर्म में तप का जैसा चाहिए वैसा वर्गीकरण नहीं है। मज्झिमनिकाय में मानव के चार प्रकार बताये गये हैं जैसे- १. . जो आत्म-तप है पर पर-तप नहीं है। इस समूह में कठोर तप करने वाले तपस्वियों का समावेश होता है। जो अपने आप को कष्ट देते हैं पर दूसरों को नहीं । २. जो पर- तप है किन्तु आत्म-तप नहीं है। इस समूह में वे हिंसक, जो पशुबलि देते हैं, आते हैं। वे दूसरों को कष्ट देते हैं, स्वयं को नहीं । ३. जो आत्म-तप भी है और पर-तप भी हैं। वे लोग जो स्वयं भी कष्ट सहन करते हैं और दूसरे व्यक्तियों को भी कष्ट प्रदान करते हैं। इस समूह में वे व्यक्ति आते हैं, जो तप के साथ यज्ञ-याग किया करते हैं । ४. जो आत्म-तप भी नहीं हैं और पर-तप भी नहीं हैं, ये वे लोग हैं जो स्वयं को कष्ट नहीं देते और न दूसरों को ही कष्ट देते हैं। वह चतुर्भंगी स्थानांग की तरह है। इसमें वस्तुतः तप का वर्गीकरण नहीं हुआ है।
तथागत बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को अतिभोजन करने का निषेध किया था । केवल एक समय भोजन की अनुमति प्रदान की थी । रसासक्ति का भी निषेध किया था । विविध आसनों का भी विधान किया था । भिक्षाचर्या का भी विधान किया था । जो भिक्षु जंगल में निवास करते हैं, वृक्ष के नीचे ठहरते हैं, श्मशान में रहते हैं, उन धुतंग भिक्षुओं की बुद्ध ने प्रशंसा की। प्रवारणा (प्रायश्चित्त), विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग—इन सभी को जीवन में आचरण करने की बुद्ध ने प्रेरणा दी किन्तु बुद्ध मध्यममार्गी विचारधारा के थे, इसलिए जैन तप-विधि में जो कठोरता है, उसका उसमें अभाव है, उनकी साधना सरलता को लिये हुये है ।
!
हमने यहाँ संक्षेप में वैदिक और बौद्ध तप के सम्बन्ध में चिन्तन किया है, जिससे आगम- साहित्य में आये हुए तप की तुलना सहज हो सकती है। वस्तुतः प्रस्तुत आगम में आया हुआ तपो वर्णन अपने आप में मौलिकता और विलक्षणता को लिये हुए है।
भगवान् महावीर के समवसरण में भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक—ये चारों प्रकार के देव उपस्थित होते थे। उन देवों के वर्णन में नाना प्रकार के आभूषण, वस्त्रों का उल्लेख हुआ है। यह वर्णन, जो शोधार्थी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का अध्ययन करना चाहते हैं, उनके लिए बहुत ही उपयोगी है। वस्त्र-निर्माण की कला में भारतीय कलाकार अत्यन्त दक्ष थे, यह भी इस वर्णन से परिज्ञात होता है। विस्तार - भय से हम यहाँ उस पर चिन्तन न कर मूल ग्रन्थ को ही देखने की
७३. अंगुत्तरनिकाय दिट्ठवज्ज सुत्त
७४. मज्झिमनिकाय महासिंहनाद सुत्त
७५. सुत्तनिपात पवज्जा सुत्त - २७/२०
७६.
Indian Philosophy, by-Dr. Radhakrishnan, Vol. 1, P. 436 ७७. बुद्धलीलासारसंग्रह पृ. २८० / २८१
[२६]