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प्रबुद्ध पाठकों को प्रेरणा देते हैं।
साथ ही कूणिक राजा का भगवान् को वन्दन करने के लिए जाने का वर्णन पठनीय है। इस वर्णन में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य रहे हुए हैं। भगवान् महावीर की धर्मदेशना भी इसमें विस्तार के साथ आई है। यों धर्म देशना में सम्पूर्ण जैन आचार मार्ग का प्ररूपण हुआ है। श्रमणाचार और श्रावकाचार का विश्लेषण हुआ है। उसके पश्चात् गणधर गौतम की विविध जिज्ञासायें हैं । पापकर्म का अनुबन्धन कैसे होता है ? और किस प्रकार के आचार-विचार वाला जीव मृत्यु के पश्चात् कहाँ पर (किस योनि में) उत्पन्न होता है ? यह उपपात-वर्णन प्रस्तुत आगम का हार्द है। और इसी आधार पर प्रस्तुत आगम का नामकरण हुआ है। यह वर्णन ज्ञानवर्धक के साथ दिलचस्प भी है। इसमें वैदिक और श्रमण परम्परा के अनेक परिव्राजकों, तापसों व श्रमणों का उल्लेख है । उनकी आचार संहिता भी संक्षेप में दी गई है।
उन परिव्राजकों का संक्षेप में परिचय इस प्रकार है
१. गौतम — ये अपने पास एक नन्हा सा बैल रखते थे, जिसके गले में कौड़ियों की माला होती, जो संकेत से अन्य व्यक्तियों के चरण स्पर्श करता। इस बैल को साथ रख कर यह साधु भिक्षा मांगा करते थे। अंगुत्तरनिकाय में भी इस प्रकार के साधुओं का उल्लेख है
२. गोव्रतिक— गोव्रत रखने वाले । गाय के साथ ही ये परिभ्रमण करते। जब गाय गाँव से बाहर जाती तो ये भी उसके साथ जाते । गाय चारा चरती तो ये भी चरते और गाय के पानी पीने पर ये भी पानी पीते। जब गाय सोती तो ये सोते । गाय की भाँति ही घास और पत्तों का ये आहार करते थे। मज्झिमनिकाय" और ललितविस्तर" प्रभृति ग्रन्थों में भी इन गोव्रतिक साधुओं का उल्लेख मिलता है।
३. गृहिधर्म ये अतिथि, देव आदि को दान देकर परम आह्लादित होते थे और अपने आपको गृहस्थ धर्म का सही रूप से पालन करने वाले मानते थे ।
४. धर्मचिन्तक धर्म - शास्त्र के पठन और चिन्तन में तल्लीन रहते थे। अनुयोगद्वार" की टीका में याज्ञवल्क्य प्रभृति ऋषियों द्वारा निर्मित धर्म-संहिताओं का चिन्तन करने वालों को धर्म-चिन्तक कहा है।
५. अविरुद्ध — देवता, राजा, माता-पिता, पशु और पक्षियों की समान रूप से भक्ति करने वाले अविरुद्ध साधु कहलाते थे। ये सभी को नमस्कार करते थे, इसलिए विनयवादी भी कहलाते थे। आवश्यकनिर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि में इनका उल्लेख है। भगवतीसूत्र के अनुसार ताम्रलिप्ति के मौर्य - पुत्र तामलि ने यही प्रणामा - प्रव्रज्या ग्रहण की थी । अंगुत्तरनिकाय में भी अविरुद्धकों का वर्णन है।
६. विरुद्ध — ये पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक नहीं मानते थे। ये अक्रियावादी थे।
७. वृद्ध—– तापस लोग प्राय: वृद्धावस्था में संन्यास लेते थे । इसलिए ये वृद्ध कहलाते थे । औपपातिक" की टीका के
७८. अंगुत्तरनिकाय - ३, पृ. ७२६ ७९. मज्झिमनिकाय - ९, पृ. ३८७ ८०. ललितविस्तर, पृ. २४८ ८१. अनुयोगद्वार सूत्र, २० ८२. आवश्यकनिर्युक्ति, ४९४ ८३. आवश्यकचूर्णि, पृ. २९८
८४. भगवती सूत्र, ३/१
८५. अंगुत्तरनिकाय - ३, पृ. २७६
८६. वृद्धाः तापसा वृद्धकाल एव दीक्षाभ्युपगमात्, आदि देवकालोत्पन्नत्वेन च सकललिङ्गिनामाद्यत्वात्, श्रावकाधर्मशास्त्रऔपपातिक सूत्र ३८ वृ.
श्रवणाद् ब्राह्मणाः अथवा वृद्धाश्रावका ब्राह्मणाः ।
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