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________________ तप की शक्ति दुरतिक्रम है। तप का लक्ष्य आत्मा या ब्रह्म की उपलब्धि है। तप से ब्रह्म की अन्वेषणा की जा सकती है।६३ तप से ही ब्रह्म को जानो। यह आत्मा तप और सत्य के द्वारा ही जाना जा सकता है। महर्षि पतंजलि के शब्दों में कहा जाए तो तप से अशुद्धि का क्षय होने से शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है।६६ जिस प्रकार जैन साधना पद्धति में बाह्य और आभ्यन्तर ये दो तप के प्रकार बताये हैं, वैसे ही गीता में भी तप का वर्गीकरण किया गया है। स्वरूप की दृष्टि से तप के १. शारीरिक तप, २. वाचिक तप और ३. मानसिक तप-ये भेद प्रतिपादित किये हैं। शारीरिक तप से तात्पर्य है-देव, द्विज, गुरुजन और ज्ञानी जनों का सत्कार करना। शरीर को आचरण से पवित्र बनाना, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा का पालन करना, यह शारीरिक तप है। वाचिक तप है-क्रोध का अभाव, प्रिय, हितकारी और यथार्थ संभाषण, स्वाध्याय और अध्ययन आदि। मानसिक तप वह है, जिसमें मन की प्रसन्नता, शांतता, मौन और मनोनिग्रह से भाव की शुद्धि हो। जो तप श्रद्धापूर्वक, फल की आकांक्षा रहित होकर किया जाता है, वही सात्त्विक तप कहलाता है। जो तप सत्कार; मान, प्रतिष्ठा के लिए अथवा प्रदर्शन के लिए किया जाता है, वह राजस तप है। जो तप अज्ञानतापूर्वक अपने आपको भी कष्ट देता है और दूसरों को भी दुःखी करता है, वह तामस तप है।६८ प्रस्तुत आगम में तप का जो वर्गीकरण किया गया है, उसमें और गीता के वर्गीकरण में यही मुख्य अन्तर है कि गीताकार ने अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय-निग्रह, आर्जव, प्रभृति को तप के अन्तर्गत माना है, जबकि जैन दृष्टि से वे महाव्रत और श्रमणधर्म के अन्तर्गत आते हैं। गीता में जैनधर्म-मान्य बाह्य तपों पर चिन्तन नहीं हुआ है और आभ्यन्तर तप में से केवल स्वाध्याय को तप की कोटि में रखा है। ध्यान और कायोत्सर्ग को योग साधना के अन्तर्गत लिया है। वैयावृत्त्य, विनय आदि को गुण माना है और प्रायश्चित्त का वर्णन शरणागति के रूप में हुआ है। महानारायणोपनिषद् में अनशन तप का महत्त्व यहाँ तक प्रतिपादित किया गया है कि अनशन तप से बढ़कर कोई तप नहीं है, जबकि गीताकार ने अवमोदर्य तप को अनशन से भी अधिक श्रेष्ठ माना है। उसका यह स्पष्ट अभिमत है—योग अधिक भोजन करने वालों के लिए सम्भव नहीं है और न निराहार रहने वालों के लिए सम्भव है किन्तु जो युक्त आहार-विहार करता है, उसी के लिए योग-साधन सरल है। बौद्ध साधना पद्धति में भी तप का विधान है। वहाँ तप का अर्थ प्रतिपल-प्रतिक्षण चित्त शुद्धि का प्रयास करना है। महामंगलसुत्त में तथागत बुद्ध ने कहा-तप ब्रह्मचर्य आर्य सत्यों का दर्शन है और निर्वाण का साक्षात्कार है। यह उत्तम मंगल है। काशीभारद्वाजसुत्त में तथागत ने कहा—मैं श्रद्धा का बीज वपन करता हूँ। उस पर तप की दृष्टि होती है। तन और वचन में संयम रखता हूँ। आहार को नियमित कर सत्य के द्वारा मन के दोषों का परिष्कार करता हूँ। दिट्ठिवज्जसुत्तर कहा—किसी तप या व्रतों को ग्रहण करने से कुशल धर्मों की वृद्धि हो जायेगी और अकुशल धर्मों की हानि होगी। अतः तप - मुण्डकोपनिषद्-१, १,८ - तैत्तरीयोपनिषद्-३. २. ३.४ - मुण्डक-३. १.५ -४३ साधनपाद-योगसूत्र ६३. तपसा चीयते ब्रह्म। ६४. तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। ६५. सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा। ६६. कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षया तपसः । ६७. गीता-अध्याय-१७, श्लो. १४, १५, १६ ६८. गीता - अध्याय-१७, श्लो. १७, १८, १९ ६९. भारतीय संस्कृति में तप साधना, ले.डॉ. सागरमल जैन ७०. तपः नानशनात्परम्। -महानारायणोपनिषद् २१, २ ७१. गीता ७, श्लो. १६-१७ ७२. महामंगलसुत्त-सुत्तनिपात, १६-१० [२५]
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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