SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धः सारसंक्षेप १७५ किये हुए हैं। १७७- फुसइ अणंते सिद्धे, सव्वपएसेहि णियमसो सिद्धो । ते वि असंखेजगुणा, देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥१०॥ १७०– (एक-एक) सिद्ध समस्त आत्म-प्रदेशों द्वारा अनन्त सिद्धों का सम्पूर्ण रूप में संस्पर्श किए हुए हैं। यों एक सिद्ध की अवगाहना में अनन्त सिद्धों की अवगाहना है—एक में अनन्त अवगाढ हो जाते हैं और उनसे भी असंख्यातगुण सिद्ध ऐसे हैं जो देशों और प्रदेशों से—कतिपय भागों से एक-दूसरे में अवगाढ़ हैं। तात्पर्य यह है कि अनन्त सिद्ध तो ऐसे हैं जो पूरी तरह एक-दूसरे में समाये हुए हैं और उनसे भी असंख्यात गुणित सिद्ध ऐसे हैं जो देश-प्रदेश से—कतिपय अंशों में, एक-दूसरे में समाये हुए हैं। अमूर्त होने के कारण उनकी एक-दूसरे में अवगाहना होने में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती। १७८- असरीरा जीवघणा, उवउत्ता सणे य णाणे य । सागारमणागारं, लक्खणमेयं त सिद्धाणं ॥११॥ ___ १७८– सिद्ध शरीर रहित, जीवघन—सघन अवगाह रूप आत्म-प्रदेशों से युक्त तथा दर्शनोपयोग एवं ज्ञानोपयोग में उपयुक्त है। यों साकार—विशेष उपयोग —ज्ञान तथा अनाकार सामान्य उपयोग दर्शन–चेतना सिद्धों का लक्षण है। १७९- केवलणाणुवउत्ता, जाणंती सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठीहिणंताहिं ॥ १२॥ १७९- वे केवलज्ञानोपयोग द्वारा सभी पदार्थों के गुणों एवं पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवलदर्शन द्वारा सर्वतः सब ओर से समस्त भावों को देखते हैं। १८०- - ण वि अस्थि माणुसाणं, तं सोक्खं ण वि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं ॥१३॥ १८०- सिद्धों को जो अव्याबाध—सर्वथा विघ्न बाधारहित, शाश्वत सुख प्राप्त है, वह न मनुष्यों को प्राप्त है और न समग्र देवताओं को ही। १८१- जं देवाणं सोक्खं, सव्वद्धा पिंडियं अणंतगुणं । __ण य पावइ मुत्तिसुहं, णंताहिं वग्गवग्गूहिं ॥ १४॥ __ १८१- तीन काल गुणित अनन्त देव-सुख, यदि अनन्त वार वर्गवर्गित किया जाए तो भी वह मोक्ष-सुख के समान नहीं हो सकता। विवेचन– अतीत, वर्तमान तथा भूत तीनों कालों से गुणित देवों का सुख, कल्पना करें, यदि लोक तथा अलोक के अनन्त प्रदेशों पर स्थापित किया जाए, सारे प्रदेश उससे भर जाएं तो वह अनन्त देव-सुख से संज्ञित होता दो समान संख्याओं का परस्पर गुणन करने से जो गुणनफल प्राप्त होता है, उसे वर्ग कहा जाता है। उदाहरणार्थ
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy