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________________ १७६ औपपातिकसूत्र पाँच का पाँच से गुणन करने पर गुणनफल पच्चीस आता है। पच्चीस पांच का वर्ग है। वर्ग का वर्ग से गुणन करने पर जो गुणनफल आता है, उसे वर्गवर्गित कहा जाता है। जैसे पच्चीस का पच्चीस से गुणन करने पर छः सौ पच्चीस गुणनफल आता है। यह पाँच का वर्गवर्गित है। देवों के उक्त अनन्त सुख को यदि अनन्त वार वर्गवर्गित किया जाए तो भी वह मुक्ति-सुख के समान नहीं हो सकता। १८२- सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वद्धा, पिंडिओ जइ हवेज्जा । सोणंतवग्गभइओ, सव्वागासे ण माएज्जा ॥ १५॥ १८२- एक सिद्ध के सुख को तीनों कालों से गुणित करने पर जो सुख-राशि निष्पन्न हो, उसे यदि अनत वर्ग से विभाजित किया जाए, जो सुख-राशि भागफल के रूप में प्राप्त हो, वह भी इतनी अधिक होती है कि सम्पूर्ण आकाश में समाहित नहीं हो सकती। १८३- जह णाम कोइ मिच्छो, नगरगुणे बहुविहे वियाणंतो । न चएइ परिकहेउं, उवमाए तहिं असंतीए ॥ १६॥ १८३– जैसे कोई म्लेच्छ—असभ्य वनवासी पुरुष नगर के अनेकविध गुणों को जानता हुआ भी वन में वैसी कोई उपमा नहीं पाता हुआ उस (नगर) के गुणों का वर्णन नहीं कर सकता। १८४- इय सिद्धाणं सोक्खं, अणोवमं णत्थि तस्स ओवम्मं । किंचि विसेसेणेत्तो, ओवम्ममिणं सुणह वोच्छं ॥ १७॥ १८४- उसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है। उसकी कोई उपमा नहीं है। फिर भी (सामान्य जनों के बोध हेतु) विशेष रूप से उपमा द्वारा उसे समझाया जा रहा है, सुनें। १८५-८६-जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई । तण्हाछुहाविमुक्को, अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो ॥ १८॥ इय सव्वकालतित्ता, अतुलं निव्वाणमुवगया सिद्धा । सासयमव्वाबाहं, चिटुंति सुही सुहं पत्ता ॥ १९॥ . १८५-१८६- जैसे कोई पुरुष अपने द्वारा चाहे गये सभी गुणों विशेषताओं से युक्त भोजन कर, भूखप्यास से मुक्त होकर अपरिमित तृप्ति का अनुभव करता है, उसी प्रकार सर्वकालतृप्त—सब समय परम तृप्तियुक्त, अनुपम शान्तियुक्त सिद्ध शाश्वत—नित्य तथा अव्याबाध सर्वथा विघ्नबाधारहित परम सुख में निमग्न रहते हैं। १८७- सिद्धत्ति य बुद्धत्ति य, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति । उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य ॥२०॥ १८७- वे सिद्ध हैं उन्होंने अपने सारे प्रयोजन साध लिये हैं। वे बुद्ध हैं केवलज्ञान द्वारा समस्त विश्व का बोध उन्हें स्वायत्त है। वे पारगत हैं संसार-सागर को पार कर चुके हैं। वे परंपरागत हैं—परंपरा से प्राप्त मोक्षोपायों का अवलम्बन कर वे संसार-सागर के पार पहुंचे हुए हैं। वे उन्मुक्त-कर्मकवच हैं जो कमों का बख्तर उन पर
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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