SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ औपपातिकसूत्र पोले अंगों की रिक्तता या पोलेपन के विलय से घनीभूत आकार होता है, वही आकार वहाँ सिद्धस्थान में रहता है। १७१- दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज संठाणं । तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥४॥ १७१– अन्तिम भव में दीर्घ या ह्रस्व—लम्बा-ठिगना, बड़ा-छोटा जैसा भी आकार होता है, उससे तिहाई भाग कम में सिद्धों की अवगाहना अवस्थिति या व्याप्ति होती है। १७२– तिण्णि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्यो । ___ एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया ॥५॥ १७२– सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तेतीस धनुष तथा तिहाई धनुष (बत्तीस अंगुल) होती है, सर्वज्ञों ने ऐसा बतलाया है। जिनकी देह पाँच सौ धनुष-विस्तारमय होती है, यह उनकी अवगाहना है। १७३– चत्तारि य रयणीओ, रयणितिभागूणिया बोद्धव्यो । __एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमओगाहणा भणिया ॥६॥ १७३— सिद्धों की मध्यम अवगाहना चार हाथ तथा तिहाई भाग कम एक हाथ (सोलह अंगुल) होती है, ऐसा सर्वज्ञों ने निरूपित किया है। __ सिद्धों की मध्यम अवगाहना का निरूपण उन मनुष्यों की अपेक्षा से है, जिनकी देह की अवगाहना सात हाथ-परिमाण होती है। १७४- एक्का य होइ रयणी, साहीया अंगुलाइ अट्ठ भवे । . . ___एस खलु सिद्धाणं, जहण्णओगाहणा भणिया ॥७॥ १७४– सिद्धों की जघन्य-न्यूनतम, अवगाहना एक हाथ तथा आठ अंगुल होती है, ऐसा सर्वज्ञों द्वारा भाषित है। यह अवगाहना दो हाथ की अवगाहना युक्त परिमाण-विस्तृत देह वाले कूर्मापुत्र आदि की अपेक्षा से है। १७५– ओगाहणाए सिद्धा, भवत्तिभागेण होंति परिहीणा । संठाणमणित्थत्थं, जरामरणविप्पमुक्काणं ॥ ८॥ १७५– सिद्ध अन्तिम भव की अवगाहना से तिहाई भाग कम अवगाहना युक्त होते हैं। जो वार्धक्य और मृत्यु से विप्रमुक्त हो गये हैं—सर्वथा छूट गये हैं, उनका संस्थान —आकार किसी भी लौकिक आकार से नहीं मिलता। १७६- जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अण्णोण्णसमोगाढा, पुट्ठा सव्वे य लोगंते ॥९॥ १७६– जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भव-क्षय—जन्म-मरण रूप सांसारिक आवागमन के नष्ट हो जाने से मुक्त हुए अनन्त सिद्ध हैं, जो परस्पर अवगाढ–एक दूसरे में मिले हुए हैं। वे सब लोकान्त का-लोकाग्र भाग का संस्पर्श
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy