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औपपातिकसूत्र काम्य विषयों से निवृत्त —उत्सुकता रहित, सर्वरागविरत—सब प्रकार के राग परिणामों से विरत, सर्व संगातीत— सब प्रकार की आसक्तियों से हटे हुए, सर्वस्नेहातिक्रान्त–सब प्रकार के स्नेह प्रेमानुराग से रहित, अक्रोध-क्रोध को विफल करने वाले, निष्क्रोध–जिन्हें क्रोध आता ही नहीं क्रोधोदयरहित, क्षीणक्रोध—जिनका क्रोध मोहनीय कर्म क्षीण हो गया हो, इसी प्रकार जिनके मान, माया, लोभ क्षीण हो गये हों, वे आठों कर्म-प्रकृतियों का क्षय करते हुए लोकाग्र लोक के अग्र भाषा में प्रतिष्ठित होते हैं मोक्ष प्राप्त करते हैं। केवलि-समुद्घात
१३१- अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवलिसमुग्घाएणं समोहणित्ता, केवलकप्पं लोयं फुसित्ता णं चिट्ठइ ?
हंता, चिट्ठइ।
१३१- भगवन् ! भावितात्मा –अध्यात्मानुगत अनगार केवलि-समुद्घात द्वारा आत्मप्रदेशों को देह से बाहर निकाल कर, क्या समग्र लोक का स्पर्श कर स्थित होते हैं ?
हाँ, गौतम! स्थित होते हैं। १३२-से णूणं भंते ! केवलकप्पे लोए तेहिं निजरापोग्गलेहिं फुडे ? हंता फुडे।
१३२- भगवन्! क्या उन निर्जरा-प्रधान—अकर्मावस्था प्राप्त पुद्गलों से खिरे हुए पुद्गलों से समग्र लोक स्पृष्ट—व्याप्त होता है ?
हाँ, गैतम! होता है।
१३३ - छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं णिजरापोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं, गंधेणं गंध, रसेणं रसं, फासेणं फासं जाणइ पासइ ?
गोयमा ! णो इणढे समढे।
१३३- भगवन् ! छद्मस्थ कर्मावरण युक्त, विशिष्टज्ञानरहित मनुष्य क्या उन निर्जरापुद्गलों के वर्णरूप से वर्ण को, गन्धरूप से गन्ध को, रसरूप से रस को तथा स्पर्शरूप से स्पर्श को जानता है ? देखता है ?
गौतम! ऐसा संभव नहीं है।
१३४ - से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ–'छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिजरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वण्णं जाव (गंधेणं गंधं, रसेणं रसं, फासेणं फासं) जाणइ, पासइ ?
१३४- भगवन् ! यह किस अभिप्राय से कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन खिरे हुए पुद्गलों के वर्णरूप से वर्ण को, गन्धरूप से गन्ध को, रसरूप से रस को तथा स्पर्शरूप से स्पर्श को जरा भी नहीं जानता, नहीं देखता?
१३५ - गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुदाणं सव्वब्भंतराए, सव्वखुड्डाए, वट्टे, तेलापूयसंठाणसंठिए वट्टे, रहचक्कवालसंठाणसंठिए वट्टे, पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए वट्टे, पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई