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________________ सर्वकामादिविरत मनुष्यों का उपपात उपसर्ग आदि स्वीकार किये, उस लक्ष्य को पूर्ण कर अपने अन्तिम उच्छ्वास - नि:श्वास में सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिवृत्त होते हैं,) सब दुःखों का अन्त करते हैं। १२८ - जेसिं पि य णं एगइयाणं णो केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जइ, ते बहूई वासाई छउमत्थपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता आबाहे वा अणुप्पण्णे वा भत्तं पच्चक्खति । ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति, जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावे जाव' तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं ऊसासणीसासेहिं अणंतं अणुत्तरं, निव्वाघायं, निरावरणं, कसिणं, पडिपुण्णं केवलवरनाणदंसणं उप्पादेंति, तओ पच्छा सिज्झिहिंति जाव' अंतं करेहिंति । १६१ १२८ – जिन कइयों— कतिपय अनगारों को केवलज्ञान, केवलदर्शन, उत्पन्न नहीं होता, वे बहुत वर्षों तक छद्मस्थ-पर्याय——–कर्मावरणयुक्त अवस्था में होते हुए संयम - पालन करते हैं— साधनारत रहते हैं। फिर किसी आबाध— रोग आदि विघ्न के उत्पन्न होने पर या न होने पर भी वे भोजन का परित्याग कर देते हैं। बहुत दिनों का अनशन करते हैं। अनशन सम्पन्न कर, जिस लक्ष्य से कष्टपूर्ण संयम पथ स्वीकार किया, उसे आराधित कर—प्राप्त कर — पूर्ण कर अपने अन्तिम उच्छ्वास- नि:श्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, सब दुःखों का अन्त करते हैं। १२९ – एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुव्वकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सव्वट्टसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति । तहिं तेसिं गई, तेतीसं सागरोवमाई ठिई, आराहगा, सेसं तं चैव । १२९ कई एक ही भव करने वाले भविष्य में केवल एक ही बार मनुष्य - देह - धारण करने वाले भगवन्त — भक्ता - अनुष्ठानविशेषसेवी अथवा भयत्राता —– संयममयी साधना द्वारा संसार भय से अपना परित्राण करने वाले सांसारिक मोह माया से अव्याप्त या अप्रभावित साधक जिनके पूर्व संचित कर्मों में से कुछ क्षय अवशेष है— उनके कारण, मृत्यु-काल आने पर देह त्याग कर उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी स्थिति तेतीस सागरोपम-प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक होते हैं। शेष पूर्ववत् । सर्वकामादिविरत मनुष्यों का उपपात १३० – सेज्जे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा— सव्वकामविरया, सव्वरागविरया, सव्वसंगातीता, सव्वसिणेहाइक्कंता, अक्कोहा, निक्कोहा, खीणक्कोहा एवं माणमायलोहा, अणुपुव्वेणं अट्ठ कम्मपयडीओ खवेत्ता उप्पिं लोयग्गपइट्ठाणा हवंति । १३० – ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे—– सर्वकामविरत —— शब्द आदि समस्त १. २. ३. देखें सूत्र संख्या १२७ देखें सूत्र संख्या १२७ देखें सूत्र संख्या ७१
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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