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________________ १६० औपपातिकसूत्र प्राप्त निर्मल चारित्र्य में उत्कृष्ट भाव से संस्थित-निर्दोष चारित्र के प्रतिपालक, दर्पणपट्ट के सदृश प्रकट भावप्रवंचना, छलना व कपट रहित शुद्ध भावयुक्त, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को विषयों से खींच कर निवृत्तिभाव में संस्थित रखने वाले, कमलपत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब-निरपेक्ष, वायु की तरह निरालय-गृहरहित, चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यायुक्त-सौम्य, सुकोमल-भाव-संवलित, सूर्य के समान दीप्त तेज—दैहिक तथा आत्मिक तेज युक्त, समुद्र के समान गम्भीर, पक्षी की तरह सर्वथा विप्रमुक्त—मुक्तपरिकर, अनियतवास–परिवार, परिजन आदि से मुक्त तथा निश्चित निवास रहित, मेरु पर्वत के समान अप्रकम्प–प्रतिकूल स्थितियों में, परिषहों में अविचल, शरद् ऋतु के जल से समान शुद्ध हृदय युक्त, गेंडे के सींग के समान एक जातराग आदि विभावों से रहित, एकमात्र आत्मनिष्ठ, भारंड' पक्षी के समान अंप्रमत्त-प्रमादरहित, जागरूक, हाथी के सदृश शौण्डीर—कषाय आदि को जीतने में शक्तिशाली, बलोन्नत, वृषभ के समान धैर्यशील–सुस्थिर, सिंह के सदृश दुर्धर्ष—परिषहों, कष्टों में अपराजेय, पृथ्वी के समान सभी शीत, उष्ण, अनुकूल, प्रतिकूल स्पर्शों को समभाव से सहने में सक्षम तथा घृत द्वारा भली भाँति हुत-हवन की हुई अग्नि के समान तेज से जाज्वल्यमान—ज्ञान तथा तप के तेज से दीप्तिमान् होते हैं, निर्ग्रन्थ-प्रवचन-वीतराग-वाणी—जिन-आज्ञा को सम्मुख रखते हुए विचरण करते हैं ऐसे पवित्र आचारयुक्त जीवन का सन्निर्वाह करते हैं। १२७- तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाणाणं अत्थेगइयाणं अणंते जाव (अणुत्तरे, णिव्वाघाए, निरावरणे कसिणे, पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पजइ। ते बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खंति, भत्तं पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदित्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे जाव (मुंडभावे, अण्हाणए, अदंतवणए, केसलोए, बंभचेरवासे, अच्छत्तगं, अणोवाहणगं, भूमिसेजा, फलहसेज्जा, कट्ठसेजा, परघरपवेसो लद्धावलद्धं, परेहि हीलणाओ, खिंसणाओ, निंदणाओ, गरहणाओ, तालणाओ, तजणाओ, परिभवणाओ, पव्वहणाओ, उच्चावया गामकटंगा बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिजति, तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं उस्सासहिस्सासेहिं सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिणिव्यायंति सव्वदुक्खाणं) अंतं करंति। __ १२७- ऐसी चर्या द्वारा संयमी जीवन का सनिर्वाह करने वाले पूजनीय श्रमणों में से कइयों को अनन्तअन्तरहित, (अनुत्तर–सर्वश्रेष्ठ, निर्व्याघात-बाधारहित या व्यवधानरहित, निरावण-आवरणरहित, कृत्स्न—समग्र सर्वार्थग्राहक, प्रतिपूर्ण परिपूर्ण अपने समस्त अविभागी अंशों से युक्त) केवलज्ञान, केवलदर्शन समुत्पन्न होता है। वे बहुत वर्षों तक केवलिपर्याय का पालन करते हैं कैवल्य-अवस्था में विचरण करते हैं। अन्त में आहार का परित्याग करते हैं, अनशन सम्पन्न कर (जिस लक्ष्य के लिए नग्नभाव-शरीर-संस्कार सम्बन्धी औदासीन्य, मुण्डभाव-श्रामण्य, अस्नान, अदन्तवन, केश-लुंचन, ब्रह्मचर्यवास, छत्र-छाते तथा उपानह-जूते, पादरक्षिका का अग्रहण, भूमि, फलक व काष्ठपट्टिका पर शयन, प्राप्त, अप्राप्त की चिन्ता किए बिना भिक्षा हेतु परगृहप्रवेश, अवज्ञा, अपमान, निन्दा, गर्दा, तर्जना, ताड़ना, परिभव, प्रव्यथा, अनेक इन्द्रिय-कष्ट, बाईस प्रकार के परिषह एवं ऐसी मान्यता है-भारण्ड पक्षी के एक शरीर, दो सिर तथा तीन पैर होते हैं। उसकी दोनों ग्रीवाएं अलग-अलग होती हैं। यों वह दो पक्षियों का समन्वित रूप लिये होता है। उसे अपने जीवन-निर्वाह हेतु खानपान आदि क्रियाओं में अत्यन्त प्रमादरहित या जागरूक रहना होता है।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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