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________________ अल्पारंभी आदि मनुष्यों का उपपात १५७ अथवा धर्मख्याति-धर्म द्वारा ख्याति प्राप्त करने वाले, धर्मप्रलोकी—धर्म को उपादेय रूप में देखने वाले, धर्मप्ररंजन— धर्म में विशेष रूप से अनुरक्त रहने वाले, धर्मसमुदाचार—धर्म का सानन्द, सम्यक् आचरण करने वाले, धर्मपूर्वक अपनी जीविका चलाने वाले, सुशील उत्तम शील-आचारयुक्त, सुव्रत-श्रेष्ठ व्रतयुक्त, सुप्रत्यानन्द-आत्मपरितुष्ट, वे साधुओं के पास साधुओं के साक्ष्य से अंशत: स्थूल रूप में जीवनभर के लिए हिंसा से, (असत्य से, चोरी से, अब्रह्मचर्य से, परिग्रह से) क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, प्रेय से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, परपरिवाद से, रति-अरति से तथा मिथ्यादर्शनशल्य से प्रतिविरत—निवृत्त होते हैं, अंशत: सूक्ष्मरूप में अप्रतिविरत—अनिवृत्त होते हैं, अंशतः स्थूल रूप में जीवनभर के लिए आरम्भ-समारम्भ से विरत होते हैं, अंशतः सूक्ष्म रूप में अविरत होते हैं, वे जीवन भर के लिए अंशतः किसी क्रिया के करने-कराने से प्रतिविरत होते हैं, अंशत: अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवनभर के लिए अंशतः पकाने, पकवाने से प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवनभर के लिए कूटने पीटने, तर्जित करने कटु वचनों द्वारा भर्त्सना करने, ताड़ना करने, थप्पड़ आदि द्वारा ताड़ित करने, वध—प्राण लेने, बन्ध-रस्सी आदि से बाँधने, परिक्लेश—पीड़ा देने से अंशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशत: अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवनभर के लिए स्नान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला तथा अलंकार से अंशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, इसी प्रकार और भी पापमय प्रवृत्ति युक्त, छल-प्रपंच युक्त, दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुँचाने वाले कर्मों से जीवन भर के लिए अंशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशत: अप्रतिविरत होते हैं। १२४- तं जहा समणोवासगा भवंति, अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्णपावा, आसवसंवर-निज्जर-किरिया-अहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसला, असहेजा, देवासुर-णाग-जक्ख-रक्खस-किन्नरकिंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिजा, निग्गंथे पावयणे हिस्संकिया, णिक्कंखिया, निव्वितिगिच्छा, लट्ठा, गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा, अभिगयट्ठा, विणिच्छियंट्ठा अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ता "अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमटे, सेसे अणट्टे" ऊसियफलिहा, अवंगुयदुवारा, चियत्तंतेउरपुरघरप्पवेसा चउद्दसट्ठमुट्ठिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेत्ता समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं, वत्थपडिग्गहकंबलपायपुच्छणेणं, ओसहभेसजेणं पडिहारएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति, विहरित्ता भत्तं पच्चक्खंति। ते बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदेंति, छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता, समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाई ठिई, आराहगा, सेसं तहेव। १२४- ऐसे श्रमणोपासक-गृही साधक होते हैं, जिन्होंने जीव, अजीव आदि पदार्थों का स्वरूप भली भांति समझा है, पुण्य और पाप का भेद जाना है, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध एवं मोक्ष को भली भांति अवगत किया है, जो किसी दूसरे की सहायता के अनिच्छुक हैं—आत्मनिर्भर हैं, जो देव, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व, महोरग आदि देवों द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अनतिक्रमणीय—विचलित नहीं किये जा सकने योग्य हैं, निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो निःशंक-शंकारहित, निष्कांक्ष—आत्मोत्थान के अतिरिक्त अन्य
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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