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________________ १५८ औपपातिकसूत्र आकांक्षा रहित, निर्विचिकित्स–विचिकित्सा या संशयरहित, लब्धार्थ धर्म के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किए हुए, गृहीतार्थ उसे ग्रहण किए हुए, पृष्टार्थ-जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थिर किये हुए, अभिगतार्थ स्वायत्त किये हुए, विनिश्चितार्थ निश्चित रूप में आत्मसात् किये हुए हैं, जो अस्थि और मज्जा तक धर्म के प्रति प्रेम तथा अनुराग से भरे हैं, जिनका यह निश्चित विश्वास है, निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही अर्थ -प्रयोजनभूत है, इसके सिवाय अन्य अनर्थअप्रयोजनभूत हैं, उच्छ्रित-परिघ–जिनके घर के किवाड़ों के आगल नहीं लगी रहती हो, अपावृतद्वार—जिनके घर के दरवाजे कभी बन्द नहीं रहते हों भिक्षुक, यांचक, अतिथि आदि खाली न लौट जाएं, इस दृष्टि से जिनके घर के दरवाजे सदा खुले रहते हों, त्यक्तान्तःपुरगृहद्वारप्रवेश—शिष्ट जनों के आवागमन के कारण घर के भीतरी भाग में उनका प्रवेश जिन्हें अप्रिय नहीं लगता हो, या अन्तःपुर अथवा घर में जिनका प्रवेश प्रीतिकर हो, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या एवं पूर्णिमा को परिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन करते हुए, श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक–अचित्त, एषणीय निर्दोष अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन, औषध-जड़ी बूटी आदि वनौषधि, भेषज तैयार औषधि, दवा, प्रतिहारिक लेकर वापस लौटा देने योग्य वस्तु, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए विहार करते हैं—जीवनयापन करते हैं; इस प्रकार का जीवन जीते हुए वे अन्ततः भोजन का त्याग कर देते हैं। बहुत से भोजन-काल अनशन द्वारा विच्छिन्न करते हैं, बहुत दिनों तक निराहार रहते हैं। वैसा कर वे पाप-स्थानों की आलोचना करते हैं, उनसे प्रतिक्रान्त होते हैं—प्रतिक्रमण करते हैं। यों समाधि अवस्था प्राप्त कर मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्टतः अच्युत काल में वे देव रूप में उत्पन्न होते हैं। अपने स्थान के अनुरूप वहाँ उनकी गति होती है। उनकी स्थिति बाईस सागरोपम-प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक होते हैं। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। १२५-सेजे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा—अणारंभा, अपरिग्गहा धम्मिया जाव (धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई, धम्मपलोई, धम्मपलज्जणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा सुसीला, सुव्वया, सुपडियाणंदा, साहू, सव्वाओ पाणाइवायाओ पडिविरया, जाव (सव्वाओ मुसावायाओ पडिविरया, सव्वाओ, अदिण्णादाणाओ पडिविरया, सव्वाओ मेहुणाओ पडिविरया) सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया, सव्वाओ, कोहाओ, माणाओ, मायाओ, लोभाओ जाव (पेजाओ, दोसाओ, कलहाओ, अब्भक्खाणाओ, पेसुण्णाओ, परपरिवायाओ, अरइरईओ, मायामोसाओ) मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया, सव्वाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया, सव्वाओ करणकारावणाओ पडिविरया, सव्वाओ पयणपयावणाओ पडिविरया, सव्वाओ कोट्टणपिट्टणतजणतालणवहबंधपरिकिलेसाओ पडिविरया, सव्वाओ ण्हाण-महण-वण्णग-विलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूवगंध-मल्लालंकाराओ पडिविरया, जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कजंति, तओ वि पडिविरया जावज्जीवाए। __ १२५– ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे—अनारंभ आरंभरहित, अपरिग्रहपरिग्रहरहित, धार्मिक, (धर्मानुग, धर्मिष्ठ, धर्माख्यायी,धर्मप्रलोकी, धर्मप्ररंजन, धर्मसमुदाचार, धर्मपूर्वक जीविका १. देखें सूत्र संख्या ७१
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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