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त्रैराशिकवाद, अबद्धिकवाद
१५५ ६. त्रैराशिकवाद- त्रैराशिकवाद जीव, अजीव तथा नोजीव–जो जीव भी नहीं, अजीव भी नहीं ऐसी तीन राशियाँ स्वीकार करते हैं। त्रैराशिकवाद के प्रवर्तक आचार्य रोहगुप्त थे। ___ इसके प्रवर्तन की कथा इस प्रकार है-रोहगुप्त अन्तरंजिका नामक नगरी में ठहरे हुए थे। वे अपने गुरु आचार्य श्रीगुप्त को वन्दन करने जा रहे थे। पोट्टशाल नामक परिव्राजक अपनी विद्याओं के प्रदर्शन द्वारा लोगों को आश्चर्यान्वित कर रहा था, वाद हेतु सबको चुनौती भी दे रहा था। रोहगुप्त ने पोट्टशाल की चुनौती स्वीकार कर ली। पोट्टशाल वृश्चिकी, सी, मूषिकी आदि विद्याएँ साधे हुए था। आचार्य श्रीगुप्तने रोहगुप्त को मयूरी, नकुली, विडाली आदि उन विद्याओं को निरस्त करने विद्याएँ सिखला दीं।
राजसभा में चर्चा हुई। पोट्टशाल बहुत चालाक था। उसने रोहगुप्त को पराजित करना कठिन समझ कर रोहगुप्त के पक्ष को ही अपना पूर्वपक्ष बना लिया, जिससे रोहगुप्त उसका खण्डन न कर सकें। उसने कहा—जगत् में दो ही राशियाँ हैं—जीवराशि और अजीवराशि। रोहगुप्त असमंजस में पड़ गए। दो राशियों का पक्ष ही उन्हें मान्य था, किन्तु पोट्टशाल को पराजित न करने और उसके पक्ष को स्वीकार कर लेने से अपयश होगा, इस विचार से उन्होंने जीव, अजीव तथा नोजीव-इन तीन राशियों की स्थापना की। तर्क द्वारा अपना मत सिद्ध किया। पोट्टशाल द्वारा प्रयुक्त वृश्चिकी, सी तथा मूषिकी आदि विद्याओं को मयूरी, नकुली एवं विडाली आदि विद्याओं द्वारा निरस्त कर दिया। पोट्टशाल पराजित हो गया।
रोहगुप्त गुरु के पास आये। सारी घटना उन्हें बतलाई । आचार्य श्रीगुप्त ने रोहगुप्त से कहा कि तीन राशियों की स्थापना कर उसने (रोहगुप्त ने) उचित नहीं किया। यह सिद्धान्तविरुद्ध हुआ। अतः वह वापस राजसभा में जाए और इसका प्रतिवाद करे। रोहगुप्त ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। वे वैसा नहीं कर सके। उन्होंने त्रैराशिकवाद का प्रवर्तन किया।
७. अबद्धिकवाद- कर्म जीव के साथ बँधता नहीं, वह केंचुल की तरह जीव का मात्र स्पर्श किये साथ लगा रहता है। अबद्धिकवादी ऐसा मानते हैं। गोष्ठामाहिल इस वाद के प्रवर्तक थे।
इसके प्रवर्तन की कथा इस प्रकार है
दुर्बलिका पुण्यमित्र, जो आर्यरक्षित के उत्तराधिकारी थे, अपने विन्ध्य नामक शिष्य को कर्म-प्रवाद के बन्धाधिकार का अभ्यास करा रहे थे। वहाँ यथाप्रसंग कर्म के विविध रूप की चर्चा आई-जैसे गीली दीवार पर सटाई गई मिट्टी दीवार से चिपक जाती है, वैसे ही कुछ कर्म ऐसे हैं, जो आत्मा के साथ चिपक जाते हैं, एकाकार हो जाते हैं। जिस प्रकार सूखी दीवार पर सटाई गई मिट्टी केवल दीवार का स्पर्श कर नीचे गिर जाती है, उसी प्रकार कुछ कर्म ऐसे हैं, जो आत्मा का स्पर्श मात्र करते हैं, गाढ रूप में बंधते नहीं। गोष्ठामाहिल ने यह सुना। वह सशंक हुआ। उसने अपनी शंका उपस्थिति की कि यदि आत्मा और कर्म एकाकार हो जाएं तो वे पृथक्-पृथक् नहीं हो १. त्रीन् राशीन् जीवाजीवनोजीवरूपान् वदन्ति ये, ते त्रैराशिकाः, रोहगुप्तमतानुसारिणः ।
-औपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र १०६ २. अबद्धं सत् कर्म कञ्चुकवत् पार्श्वतः स्पृष्टमात्रं जीवं समनुगच्छतीत्येवं वदन्तीत्यबद्धिकाः, गोष्ठामाहिलमतावलम्बिनः।
–औपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र १०६