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बहुरतवाद, जीवप्रादेशिकवाद, अव्यक्तवाद
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उनके वादों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१. बहुरतवाद- बहुत समयों में रत या आसक्त बहुरत कहे जाते थे। उनके अनुसार कार्य की निष्पन्नता बहुत समयों से होती है। अतः क्रियमाण को कृत नहीं कहा जा सकता। अपेक्षा-भेद पर आधृत अनेकान्तमय समंजस विचारधारा में बहुरतवादियों की आस्था नहीं थी।
बहुरतवाद का प्रवर्तक जमालि था। वह क्षत्रिय राजकुमार था। भगवान् महावीर का जामाता था। वैराग्यवश वह भगवान् के पास प्रव्रजित हुआ, उसके पाँच सौ साथी भी। ज्ञानाराधन एवं तपश्चरण पूर्वक वह श्रमण-धर्म का पालन करने लगा।
एक बार उसने जनपद-विहार का विचार किया। भगवान् से अनुज्ञा मांगी। भगवान् कुछ बोले नहीं। फिर भी उसने अपने पाँच सौ श्रमण-साथियों के साथ विहार कर दिया।
वह श्रावस्ती में रुका। कठोर चर्या तथा तप की आराधना में लगा। एक बार वह घोर पित्तज्वर से पीड़ित हो गया। असह्य वेदना थी। उसने अपने साधुओं को बिछौना तैयार करने की आज्ञा दी। साधु वैसा करने लगे। जमालि ज्वर की वेदना से अत्यन्त व्याकुल था। क्षण-क्षण का समय बीतना भारी था। उसने अधीरता से पूछा-क्या बिछौना तैयार हो गया ? साधु बोले –देवानुप्रिय! बिछौना बिछ गया है। तीव्र ज्वर-जनित आकुलता थी ही, जमालि टिक नहीं पा रहा था। वह तत्काल उठा, गया और देखा कि बिछौना बिछाया जा रहा है। यह देखकर उसने विचार किया— कार्य एक समय में निष्पन्न नहीं होता, बहुत समयों से होता है। कितनी बड़ी भूल चल रही है कि क्रियमाण को कृत कह दिया जाता है। भगवान् महावीर भी ऐसा कहते हैं। जमालि के मन में इस प्रकार एक मिथ्या विचार बैठ गया। वेदना शान्त होने पर अपने साथी श्रमणों के समक्ष उसने यह विचार रखा। कुछ सहमत हुए, कुछ असहमत । जो सहमत हुए, उसके साथ रहे, जो सहमत नहीं हुए, वे भगवान् महावीर के पास आ गये।
जमालि कुछ समय पश्चात् भगवान् महावीर के पास आया। वार्तालाप हुआ। भगवान् महावीर ने उसे समझाया, पर उसने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। धीरे-धीरे उसके साथी उसका साथ छोड़ते गये।
२. जीवप्रादेशिकवाद- एक प्रदेश भी कम हो तो जीव-जीवत्वयुक्त नहीं कहा जा सकता, अतएव जिस एक–अन्तिम प्रदेश से पूर्ण होने पर जीव जीव कहलाता है, वह एक प्रदेश ही वस्तुतः जीव है। जीवप्रादेशिकवाद का यह सिद्धान्त था। इसके प्रवर्तक तिष्यगुप्ताचार्य थे।
३. अव्यक्तवाद- साधु आदि के सन्दर्भ में यह सारा जगत् अव्यक्त है। अमुक साधु है या देव है, ऐसा कुछ भी स्पष्टतया व्यक्त या प्रकट नहीं होता। यह अव्यक्तवाद का सिद्धान्त है। इस वाद के प्रवर्तक आचार्य आषाढ १. बहुषु समयेषु रताः—आसक्ताः, बहुभिरेव समयैः कार्य निष्पद्यते नैकसमयेनेत्येवंविधवादिनो बहुरता:- जमालिमतानुपातिनः ।
-औपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र १०६ जीव: प्रदेश एवैको येषां मतेन ते जीवप्रदेशाः । एकेनापि प्रदेशेन न्यूनो जीवो न भवत्ययो येनैकेन प्रदेशेन पूर्ण: सन् जीवो भवति, स एवैकः प्रदेशः जीवो भवतीत्येवंविधवादिनस्तिष्यगुप्ताचार्यमताविसंवादिनः ।
–औपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र १०६ ३. अव्यक्तं समस्तमिदं जगत् साध्वादिविषये श्रमणोऽयं देवो वाऽयमित्यादिविविक्तप्रतिभासोदयाभावात्ततश्चाव्यक्तं वस्त्विति मतमस्ति येषां ते अव्यक्तिका: अविद्यमाना वा साध्वादिव्यक्तिरेषामित्यव्यक्तिकाः, आषाढाचार्यशिष्यमतान्त:पातिनः ।
–औपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र १०६