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औपपातिकसूत्र
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किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे आभिओगिएसु देवेषु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । तहिं तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाइं ठिई, परलोगस्स अणाराहगा, सेसं तं चेव ।
१२१ – ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो प्रव्रजित श्रमण होते हैं, जैसे आत्मोत्कर्षक— अपना उत्कर्ष दिखानेवाले ——– अपना बड़प्पन या गरिमा बखानने वाले, परपरिवादक — दूसरों की निन्दा करने वाले, भूतिकर्मिकज्वर आदि बाधा, उपद्रव शान्त करने हेतु अभिमन्त्रित भस्म आदि देनेवाले, कौतुककारक — भाग्योदय आदि के निमित्त चामत्कारिक बातें करनेवाले। वे इस प्रकार की चर्या लिये विहार करते हुए जीवन चलाते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं। अपने गृहीत पर्याय का पालन कर वे अन्ततः अपने पाप - स्थानों की आलोचना नहीं करते हुए, उनसे प्रतिक्रान्त नहीं होते हुए, मृत्यु - काल आने पर देह त्याग कर उत्कृष्ट अच्युत कल्प में आभियोगिक——सेवकवर्ग के देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी स्थिति बाईस सागरोपम - प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक नहीं होते । अवशेष वर्णन पूर्ववत् है । ह्निवों का उपपात
१२२ – सेज्जे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु णिण्हगा भवंति, तं जहा—१ बहुरया, २ जीवएसिया, ३ अव्वत्तिया ४ सामुच्छेइया, ५ दोकिरिया, ६ तेरासिया, ७ अबद्धिया इच्चेते सत्त पवयणणिण्हगा, केवलचरियालिंगसामण्णा, मिच्छद्दिट्ठि बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा, वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूई वासाई सामण्णपरियागं पडणंति, पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेज्जेसु देवत्ताए उत्तरो भवंति । तहिं तेसिं गई, एक्कतीसं सागरोवमाइं ठिई, परलोगस्स अणाराहगा, सेसं तं चेव ।
१२२ – ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये निह्नव होते हैं, जैसे—– बहुरत, जीवप्रादेशिक, अव्यक्तिक, सामुच्छेदिक, द्वैक्रिय, त्रैराशिक तथा अबद्धिक, वे सातों ही जिन - प्रवचन – जैन - सिद्धान्त, वीतरागवाणी का अपलाप करने वाले या उलटी प्ररूपणा करनेवाले होते हैं। वे केवल चर्या - भिक्षा- याचना आदि बाह्य क्रियाओं तथा लिंग— रजोहरण आदि चिह्नों में श्रमणों के सदृश होते हैं। वे मिथ्यादृष्टि हैं। असद्भाव — जिनका सद्भाव या अस्तित्व नहीं है, ऐसे अविद्यमान पदार्थों या तथ्यों की उद्भावना — निराधार परिकल्पना द्वारा, मिथ्यात्व के अभिनिवेश द्वारा अपने को, औरों को दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए — अतथ्यपरक ( जिन - प्रवचन के प्रतिकूल ) संस्कार जमाते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं। श्रमण-पर्याय का पालन कर, मृत्यु-काल आने पर देह त्याग कर उत्कृष्ट ग्रैवेयक देवों में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। वहाँ उनकी स्थिति इकतीस सागरोपम-प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक नहीं होते। अवशेष वर्णन पूर्ववत्
है।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में जिन सात निह्नवों का उल्लेख हुआ है— आचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी वृत्ति में संक्षेप में उनकी चर्चा की है। उस सम्बन्ध में यत्र-तत्र और भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। जिन-प्रवचन के अपलापी ये निह्नव सिद्धान्त के किसी एक देश या एकांश को लेकर हठाग्रह किंवा दुराग्रह से अभिभूत थे ।
देखें सूत्र - संख्या ७१
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