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________________ आजीवकों का उपपात, आत्मोत्कर्षक आदि प्रव्रजित श्रमणों का उपपात १५१ ११८- जो ये संज्ञी समनस्क या मन सहित, पर्याप्त —आहारादि-पर्याप्तियुक्त तिर्यग्योनिक–पशु-पक्षी जाति के जीव होते हैं, जैसे—जलचर—पानी में चलने वाले (रहने वाले), स्थलचर—पृथ्वी पर चलने वाले तथा खेचर आकाश में चलने वाले (उड़ने वाले), उनमें से कइयों के प्रशस्त –उत्तम अध्यवसाय, शुभ परिणाम तथा विशुद्ध होती हुई लेश्याओं—अन्तः परिणतियों के कारण ज्ञानावरणीय एवं वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए अपनी संज्ञित्व-अवस्था से पूर्ववर्ती भवों की स्मृति—जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न होते ही वे स्वयं पाँच अणुव्रत स्वीकार करते हैं। ऐसा कर अनेकविध शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण विरति, प्रत्याख्यान त्याग, पोषधोपवास आदि द्वारा आत्मभावित होते हुए बहुत वर्षों तक अपने आयुष्य का पालन करते हैं जीवित रहते हैं। फिर वे अपने पाप-स्थानों की आलोचना कर, उनसे प्रतिक्रान्त हो, समाधि-अवस्था प्राप्त कर, मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सहस्रार-कल्प देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी वहाँ स्थिति अठारह सागरोपम-प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक होते हैं। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। आजीवकों का उपपात १२०- से जे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु आजीविया भवंति, तं जहा दुघरंतरिया, तिघरंतरिया, सत्तघरंतरिया, उप्पलबेंटिया, घरसमुदाणिया, विजयंतरिया उट्टिया समणा, ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाइं ठिई, अणाराहगा, सेसं तं चेव। १२०- ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो आजीवक होते हैं, जैसे—दो घरों के अन्तर से दो घर छोड़कर भिक्षा लेने वाले, तीन घर छोड़कर भिक्षा लेने वाले, सात घर छोड़कर भिक्षा लेनेवाले, नियम-विशेषवश भिक्षा में केवल कमल-डंठल लेनेवाले, प्रत्येक घर से भिक्षा लेनेवाले, जब बिजली चमकती हो तब भिक्षा नहीं लेनेवाले, मिट्टी से बने नांद जैसे बड़े बर्तन में प्रविष्ट होकर तप करनेवाले, वे ऐसे आचार द्वारा विहार करते हुएजीवन-यापन करते हुए बहुत वर्षों तक आजीवक-पर्याय का पालन कर, मृत्यु-काल आने पर मरण प्राप्त कर, उत्कृष्ट अच्युत कल्प में (बारहवें देवलोक में) देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी स्थिति बाईस सागरोपम-प्रमाण होती है। वे आराधक नहीं होते। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। आत्मोत्कर्षक आदि प्रव्रजित श्रमणों का उपपात १२१- सेजे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा–अत्तुकोसिया, परपरिवाइया, भूइकम्मिया, भुजो-भुजो कोउयकारगा, ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिक्कंता कालमासे कालं १-२. देखें सूत्र-संख्या ७१
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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