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औपपातिकसूत्र
प्रत्यनीकों का उपपात
११७ - सेजे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहाआयरियपडिणीया, उवज्झायपडिणीया, कुलपडिणीया, गणपडिणीया, आयरियउवज्झायाणं अयसकारगा, अवण्णकारगा, अकित्तिकारगा, बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा, वुष्पाएमाणा विहरित्ता बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअप्पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तेरस सागरोवमाई ठिई, अणाराहगा, सेसं तं चेव।
११७-जो ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में प्रव्रजित श्रमण होते हैं, जैसे—आचार्य-प्रत्यनीक आचार्य के विरोधी, उपाध्याय-प्रत्यनीक उपाध्याय के विरोधी, कुल-प्रत्यनीक कुल के विरोधी, गण-प्रत्यनीक—गण के विरोधी, आचार्य और उपाध्याय के अयशस्कर–अपयश करने वाले, अवर्णकारक–अवर्णवाद बोलने वाले, अकीर्तिकारक—अपकीर्ति या निन्दा करने वाले, असद्भाव वस्तुतः जो हैं नहीं, ऐसी बातों या दोषों के उद्भावनआरोपण तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेश द्वारा अपने को, औरों को दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए अपने को तथा औरों को आशातना-जनित पाप में निपतित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं। अपने पाप-स्थानों की आलोचना, प्रतिक्रमण नहीं करते हुए मृत्यु-काल आ जाने पर मरण प्राप्त कर वे उत्कृष्ट लान्तक नामक छठे देवलोक में किल्विषिक संज्ञक देवों में (जिनका चाण्डालवत् साफ-सफाई करना कार्य होता है) देवरूप में उत्पन्न होते हैं। अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी वहां स्थिति तेरह सागरोपमप्रमाण होती है। अनाराधक होते हैं। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनि जीवों का उपपात
११८- सेजे इमे सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पज्जत्तया भवंति, तं जहा जलयरा, थलयरा, खहयरा। तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं, पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणाणं सण्णीपुव्वजाइसरणे समुप्पजइ।
तए णं समुप्पण्णजाइसरणा समाणा सयमेव पंचाणुव्वयाइं पडिवजंति, पडिवजित्ता बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणा बहूई वासाइं आउयं पालेंति, पालित्ता आलोइयपडिक्कंता, समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव।
१. २.
देखें सूत्र संख्या ७१ आचार्य, उपाध्याय, कुल तथा गण का सूत्र-संख्या ३० के विवेचन के अन्तर्गत विवेचन किया जा चुका है, जो द्रष्टव्य
है।