SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अम्बड के उत्तरवर्ती भव १४९ त्यागने में समित–सम्यक् प्रवृत्त—यतनाशील होंगे। वे मनोगुप्त, वचोगुप्त, कायगुप्त-मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का गोपायन-संयम करने वाले, गुप्त शब्द आदि विषयों में रागरहित—अन्तर्मुख, गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को उनके विषय व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित तथा गुप्त ब्रह्मचारी नियमोपनियम-पूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण—परिपालन करने वाले होंगे। ११५-तस्स णं भगवंतस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स अणंते, अणुत्तरे, णिव्वाघाए, निरावरणे, कसिणे, पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पजहिति। ११५– इस प्रकार की चर्या में संप्रवर्तमान-ऐसा साधनामय जीवन जीते हुए मुनि दृढ़प्रतिज्ञ को अनन्त अन्तरहित या अनन्त पदार्थ विषयक अनन्त पदार्थों को जानने वाला, अनुत्तर–सर्वश्रेष्ठ, निर्व्याघात-बाधा या . व्यवधान रहित, निरावरण—आवरणरहित, कृत्स्न—समग्र-सर्वार्थग्राहक, प्रतिपूर्ण—परिपूर्ण, अपने समग्र अविभागी अंशों से समायुक्त, केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न होगा। ११६-तए णं से दढपइण्णे केवली बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणिहिति, केवलिपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सर्टि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावे, मुंडभावे, अण्हाणए, अदंतवणए, केसलोए, बंभचेरवासे, अच्छत्तगं अणोवाहणगं, भूमिसेजा, फलगसेज्जा, कट्ठसेज्जा, परघरपवेसो लद्धावलद्धं, परेहिं हीलणाओ, खिंसणाओ, निंदणाओ, गरहणाओ, तालणाओ, तज्जणाओ, परिभवणाओ, पव्वहणाओ, उच्चावया गामकटंगा, बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जंति, तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिति, बुज्झिहिति, मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति, सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति। ११६– तत्पश्चात् दृढ़प्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवलि-पर्याय का पालन करेंगे—केवलि-अवस्था में विचरेंगे। यों केवलि-पर्याय का पालन कर, एक मास की संलेखना और साठ भोजन—एक मास का अनशन सम्पन्न कर जिस लक्ष्य के लिए नग्नभाव-शारीरिक संस्कारों के प्रति अनासक्ति, मुण्डभाव सांसारिक सम्बन्ध तथा ममत्व का त्याग कर श्रमण-जीवन की साधना, अस्नान स्नान न करना, अदन्तवन मंजन नहीं करना, केशलुंचन—बालों को अपने हाथ से उखाड़ना, ब्रह्मचर्यवास–ब्रह्मचर्य की आराधना—बाह्य तथा आभ्यन्तर रूप में अध्यात्म की साधना, अच्छत्रक-छत्र (छाता) धारण नहीं करना, जूते या पादरक्षिका धारण नहीं करना, भूमि पर सोना, फलक-काष्ठपद पर सोना, सामान्य काठ की पटिया पर सोना.भिक्षा हेत परगह में प्रवेश करना. जहाँ आहार मिला हो या न मिला हो, औरों से जन्म-कर्म की भर्त्सनापूर्ण अवहेलना—अवज्ञा या तिरस्कार, खिंसना मर्मोद्घाटनपूर्वक अपमान, निन्दना—निन्दा, गर्हणा—लोगों के समक्ष अपने सम्बन्ध में प्रकट किये गये कुत्सित भाव, तर्जना–अंगुली आदि द्वारा संकेत कर कहे गये कटु वचन, ताड़ना थप्पड आदि द्वारा परिताड़न, परिभवनापरिभव–अपमान, परिव्यथना–व्यथा, नाना प्रकार की इन्द्रियविरोधी आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों के लिए कष्टकर स्थितियाँ, बाईस प्रकार के परिषह तथा देवादिकृत उपसर्ग आदि स्वीकार किये, उस लक्ष्य को पूरा कर अपने अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास में सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिवृत्त होंगे, सब दुखों का अन्त करेंगे।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy