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________________ औपपातिकसूत्र साहसिक) अपने पुत्र दृढ़प्रतिज्ञ को सर्वथा भोग-समर्थ जानकर अन्न-उत्तम खाद्य पदार्थ, पान—उत्तम पेय पदार्थ, लयन —— सुन्दर गृह आदि में निवास, उत्तम वस्त्र तथा शयन — उत्तम शय्या, बिछौने आदि सुखप्रद सामग्री का उपभोग करने का आग्रह करेंगे। १४८ १११— तए णं दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहिं अण्णभोगेहिं जाव (पाणभोगेहिं, लेणभोगेहिं, वत्थभोगेहिं) सयणभोगेहिं णो सज्जिहिति, णो रज्जिहिति, णो गिज्झिहिति, णो मुज्झिहिति, णो अज्झोववज्जिहिति । १११ – तब कुमार दृढ़प्रतिज्ञ अन्न, (पान, गृह, वस्त्र) शयन आदि भोगों में आसक्त नहीं होगा, अनुरक्त नहीं होगा, गृद्ध लोलुप नहीं होगा, मूच्छित — मोहित नहीं होगा तथा अध्यवसित नहीं होगा- मन नहीं लगायेगा । ११२ –— से जहाणामए उप्पले इ वा, पउमे इ वा, कुमुदे इ वा, नलिने इ वा, सुभगे इ वा, सुगंधे इवा, पोंडरीए इ वा, महापोंडरीए इ वा, सयपत्ते इ वा, सहस्सपत्ते इ वा, सयसहस्सपत्ते इ वा, पंके जाए, जले संवुड्ढे गोवलिप्पड़ पंकरएणं णोवलिप्पड़ जलरएणं, एवामेव दढपइण्णे वि दारए काहिं जाए भोगेहिं संवुड्ढे णोवलिप्पिहिति कामरएणं, णोवलिप्पिहिति भोगरएणं, णोवलिप्पिहिति मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं । ११२ – जैसे उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सुगन्ध, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, शतसहस्रपत्र आदि विविध प्रकार के कमल कीचड़ में उत्पन्न होते हैं, जल में बढ़ते हैं पर जल-रज-जल - रूप रज से या जल-कणों से लिप्त नहीं होते, उसी प्रकार कुमार दृढ़प्रतिज्ञ जो काममय जगत् में उत्पन्न होगा, भोगमय जगत् में संवर्धित होगा— पलेगा- पुसेगा, पर काम - रज से शब्दात्मक, रूपात्मक भोग्य पदार्थों से भोगासक्ति से, भोगरज से गन्धात्मक, रसात्मक, स्पर्शात्मक भोग्य पदार्थों से — भोगासक्ति से लिप्त नहीं होगा, मित्र —– सुहृद, ज्ञाति सजातीय, निजक—भाई, बहिन आदि पितृपक्ष के पारिवारिक, स्वजन – नाना, मामा आदि मातृपक्ष के पारिवारिक तथा अन्यान्य सम्बन्धी, परिजन — सेवकवृन्द – इनमें आसक्त नहीं होगा । ११३—– से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुज्झिहिति, बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिति । ११३ – वह तथारूपवीतराग की आज्ञा के अनुसर्ता अथवा सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र से युक्त स्थविरों— ज्ञानवृद्ध, संयमवृद्ध श्रमणों के पास केवलबोधि – विशुद्ध सम्यक् दर्शन प्राप्त करेगा । गृहवास का परित्याग कर वह अनगार - धर्म में प्रव्रजित — दीक्षित होगा— श्रमण जीवन स्वीकार करेगा । ११४ - से णं भविस्सइ अणगारे भगवंते ईरियासमिए जाव ( भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिद्वावणियासमिए, मणगुत्ते, वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, गुत्तिंदिए ) गुत्तबंभचारी । ११४—– वे अनगार भगवान् मुनि दृढ़प्रतिज्ञ ईर्यागमन, हलन चलन आदि क्रिया, भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि के उठाने, इधर-उधर रखने आदि तथा मल, मूत्र, खंखार, नाक आदि का मैल
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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