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________________ अम्बड के उत्तरवर्ती भव १४७ खेल–सूत द्वारा खेल दिखाने, कच्चे सूत द्वारा करिश्मे बतलाने की कला, ६७. नालिका-खेल–नालिका में पासे या कौड़ियाँ डालकर गिराना-जुआ खेलने की एक विशेष प्रक्रिया की जानकारी, ६८. पत्रच्छेद्य —एक सौ आठ पत्तों में यथेष्ट संख्या के पत्तों को एक बार में छेदने का हस्त-लाघव.६९.कटच्छेद्य चटाई की तरह क्रमशः फैलाये हए पत्र आदि के छेदन की विशेष प्रक्रिया में नैपुण्य, ७०. सजीव—पारद आदि मारित धातुओं को पुनः सजीव करना सहज रूप में लाना, ७१. निर्जीव-पारद, स्वर्ण आदि धातुओं का मारण करना तथा ७२. शकुन-रुतपक्षियों के शब्द, गति, चेष्टा आदि जानने की कला। ये बहत्तर कलाएँ सधाकर, इनका शिक्षण देकर, अभ्यास कराकर कलाचार्य बालक को माता-पिता को सौंप देंगे। १०८-तए णं तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेहिंति, सक्कारेत्ता सम्माणेहिंति, सम्माणेत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्संति, दलइत्ता पडिविसज्जेहिंति। __१०८- तब बालक दृढ़प्रतिज्ञ के माता-पिता कलाचार्य का विपुल—प्रचुर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, गन्ध, माला तथा अलंकार द्वारा सत्कार करेंगे, सम्मान करेंगे। सत्कार-सम्मान कर उन्हें विपुल, जीविकोचित —जिससे समुचित रूप में जीवन-निर्वाह होता रहे, ऐसा प्रीतिदान–पुरस्कार देंगे। पुरस्कार देकर प्रतिविसर्जित करेंगेविदा करेंगे। १०९– तए णं से दढपइण्णे दारए बावत्तरिकलापंडिए, नवंगसुत्तपडिबोहिए, अट्ठारसदेसीभासाविसारए, गीयरई, गंधव्वणट्टकुसले, हयजोही, गयजोही, रहजोही, बाहुजोही, बाहुप्पमही, वियालचारी, साहसिए, अलंभोगसमत्थे यावि भविस्सइ। १०९- बहत्तर कलाओं में पंडित—मर्मज्ञ, प्रतिबुद्ध नौ अंगों—दो कान, दो नेत्र, दो घ्राण, एक जिह्वा, एक त्वचा तथा एक मन—इन अंगों की चेतना, संवेदना के जागरण से युक्त यौवनावस्था में विद्यमान, अठारह देशी भाषाओं लोकभाषाओं में विशारद-निपुण, गीतप्रिय, गान्धर्व-नाट्य-कुशल-संगीत-विद्या, नृत्य-कला आदि में प्रवीण, अश्वयुद्ध–घोड़े पर सवार होकर युद्ध करना, गजयुद्ध—हाथी पर सवार होकर युद्ध करना, रथयुद्धरथ पर सवार होकर युद्ध करना, बाहुयुद्ध-भुजाओं द्वारा युद्ध करना, इन सब में दक्ष, विकालचारी—निर्भीकता के कारण रात में भी घूमने-फिरने में निःशंक, साहसिक प्रत्येक कार्य में साहसी दृढ़प्रतिज्ञ यों सांगोपांग विकसित संवद्धित होकर सर्वथा भोग-समर्थ हो जाएगा। ११०- तए णं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो बावत्तरिकलापंडियं जाव (नवंगसुत्तपडिबोहियं, अट्ठारसदेसीभासाविसारयं, गीयरइं, गंधव्वणट्टकुसलं, हयजोहिं, गयजोहिं, रहजोहिं, बाहुजोहिं, बाहुप्पमदि, वियालचारि, साहसियं), अलंभोगसमत्थं वियाणित्ता विउलेहिं अण्णभोगेहि, पाणभोगेहिं, लेणभोगेहिं, वत्थभोगेहिं, सयणभोगेहिं, उवणिमंतेहिंति। ___ ११०- माता-पिता बहत्तर कलाओं में मर्मज्ञ, (प्रतिबुद्ध नौ अंग युक्त, अठारह देशी भाषाओं में निपुण, गीतप्रिय, गान्धर्व-नाट्य-कुशल, अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहुयुद्ध एवं बाहुप्रमर्द में दक्ष, निर्भय-विकालचारी,
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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