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चमत्कारी अम्बड परिव्राजक
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गंगामट्टियाए। अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पइ आहाकम्मिए वा, उद्देसिए वा, मीसजाए इवा, अज्झोयरए इ वा, पूइकम्मे इ वा, कीयगडे इ वा, पामिच्चे इ वा, अणिसिटे इ वा, अभिहडे इ वा, ठइत्तए वा, रइत्तए वा, कंतारभत्ते इ वा, दुब्भिक्खभत्ते इ वा, गिलाणभत्ते इ वा, वदलियाभत्ते इ वा, पाहुणगभत्ते इ वा, भोत्तए वा, पाइत्तए वा। अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पइ मूलभोयणे वा जाव (कंदभोयणे, फलभोयणे, हरियभोयणे, पत्तभोयणे) बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा।
__ ९६– अम्बड परिव्राजक को मार्गगमन के अतिरिक्त गाड़ी की धुरी-प्रमाण जल में भी शीघ्रता से उतरना नहीं कल्पता । अम्बड परिव्राजक को गाड़ी आदि पर सवार होना नहीं कल्पता । यहाँ से लेकर गंगा की मिट्टी के लेप तक का समग्र वर्णन पहले आये वर्णन के अनुरूप समझ लेना चाहिए।
अम्बड परिव्राजक को आधाकर्मिक तथा औद्देशिक छह काय के जीवों के उपमर्दनपूर्वक साधु के निमित्त बनाया गया भोजन, मिश्रजात—साधु तथा गृहस्थ दोनों के उद्देश्य से तैयार किया गया भोजन, अध्यवपूर—साधु के लिए अधिक मात्रा में निष्पादित भोजन, पूर्तिकर्म आधाकर्मी आहार के अंश से मिला हुआ भोजन, क्रीतकृत— खरीदकर लिया गया भोजन, प्रामित्य-उधार लिया हुआ भोजन, अनिसृष्ट-गृह-स्वामी या घर के मुखिया को बिना पूछे दिया जाता भोजन, अभ्याहृत—साधु के सम्मुख लाकर दिया जाता भोजन, स्थापित—अपने लिए पृथक् रखा हुआ भोजन, रचित—एक विशेष प्रकार का उद्दिष्ट—अपने लिए संस्कारित भोजन, कान्तारभक्त जंगल पार करते हुए घर से अपने पाथेय के रूप में लिया हुआ भोजन, दुर्भिक्षभक्त दुर्भिक्ष के समय भिक्षुओं तथा अकालपीड़ितों के लिए बनाया हुआ भोजन, ग्लानभक्त बीमार. के लिए बनाया हुआ भोजन अथवा स्वयं बीमार होते हुए आरोग्य हेतु दान रूप में दिया जाने वाला भोजन, वार्दलिकभक्त बादल आदि से घिरे दिन में दुर्दिन में दरिद्र जनों के लिए तैयार किया गया भोजन, प्राघूर्णक-भक्त—अतिथियों—पाहुनों के लिए तैयार किया हुआ भोजन अम्बड परिव्राजक को खाना-पीना नहीं कल्पता।
इसी प्रकार अम्बड परिव्राजक को मूल, (कन्द, फल, हरे तृण,) बीजमय भोजन खाना-पीना नहीं कल्पता।
९७ – अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स चउव्विहे अणट्ठदंडे पच्चक्खाए जावजीवाए। तं जहाअवज्झाणायरिए, पमायायरिए, हिंसप्पयाणे, पावकम्मोवएसे।
९७– अम्बड परिव्राजक ने चार प्रकार के अनर्थदण्ड बिना प्रयोजन हिंसा तथा तन्मूलक अशुभ कार्यों का परित्याग किया है। वे इस प्रकार हैं—१. अपध्यानाचरित, २. प्रमादाचरित, ३. हिंस्रप्रदान, ४. पापकर्मोपदेश।
विवेचन— बिना किसी उद्देश्य के जो हिंसा की जाती है, उसका समावेश अनर्थदंड में होता है। यद्यपि हिंसा तो हिंसा ही है, पर जो लौकिक दृष्टि से आवश्यकता या प्रयोजनवश की जाती है, उसमें तथा निरर्थक की जाने वाली हिंसा में बड़ा भेद है। आवश्यकता या प्रयोजनवश हिंसा करने को जब व्यक्ति बाध्य होता है तो उसकी विवशता देखते उसे व्यावहारिक दृष्टि से क्षम्य भी माना जा सकता है पर प्रयोजन या मतलब के बिना हिंसा आदि का आचरण करना सर्वथा अनुचित है। इसलिए उसे अनर्थदंड कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में सूचित चार प्रकार के अनर्थदंड की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है