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औपपातिकसूत्र
अपध्यानाचरित- अपध्यानाचरित का अर्थ है दुश्चिन्तन । दुश्चिन्तन भी एक प्रकार से हिंसा ही है। वह आत्मगुणों का घात करता है। दुश्चिन्तन दो प्रकार का है—आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान। अभीप्सित वस्तु, जैसे धनसंपत्ति, संतति, स्वस्थता आदि प्राप्त न होने पर एवं दारिद्रय, रुग्णता, प्रियजन का विरह आदि अनिष्ट स्थितियों के होने पर मन में जो क्लेशपूर्ण विकृत चिन्तन होता है, वह आर्तध्यान है। क्रोधावेश, शत्रु-भाव और वैमनस्य आदि से प्रेरित होकर दूसरे को हानि पहुँचाने आदि की बात सोचते रहना रौद्रध्यान है। इन दोनों तरह से होने वाला दुश्चिन्तन अपध्यानाचरित रूप अनर्थदंड है।
प्रमादाचरित- अपने धर्म, दायित्व व कर्तव्य के प्रति अजागरूकता प्रमाद है। ऐसा प्रमादी व्यक्ति अक्सर अपना समय दूसरों की निन्दा करने में, गप्प मारने में, अपने बड़प्पन की शेखी बघारते रहने में, अश्लील बातें करने में बिताता है। इनसे सम्बद्ध मन, वचन तथा शरीर के विकार प्रमादाचरित में आते हैं।
हिंस्रप्रदान– हिंसा के कार्यों में साक्षात् सहयोग करना, जैसे चोर, डाकू तथा शिकारी आदि को हथियार देना, आश्रय देना तथा दूसरी तरह से सहायता करना। ऐसा करने से हिंसा को प्रोत्साहन और सहारा मिलता है, अतः यह अनर्थदंड है।
पापकर्मोपदेश- औरों को पाप-कार्य में प्रवृत्त होने में प्रेरणा, उपदेश या परामर्श देना। उदाहरणार्थ, किसी शिकारी को यह बतलाना कि अमुक स्थान पर शिकार-योग्य पशु-पक्षी उसे प्राप्त होंगे, किसी व्यक्ति को दूसरों को तकलीफ देने के लिए उत्तेजित करना, पशु-पक्षियों को पीड़ित करने के लिए लोगों को दुष्प्रेरित करना—इन सबका पापकर्मोपदेश में समावेश है।
___९८- अम्मडस्स कप्पइ मागहए अद्धाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए से वि य वहमाणए, णो चेव णं अवहमाणए जाव (से वि य थिमिओदए, णो चेव णं कद्दमोदए, से वि य बहुप्पसण्णे, णो चेव णं अबहुप्पसण्णे) से वि य परिपूए, णो चेव णं अपरिपूए, से वि य सावज्जे त्ति काउं णो चेव णं अणवजे, से वि य जीवा ति काउं, णो चेव णं अजीवा, से वि य दिण्णे, णो चेव णं अदिण्णे, से वि य हत्थपाय-चरुचमसपक्खालणट्ठयाए पिबित्तए वा, णो चेव णं सिणाइत्तए। अम्मडस्स कप्पड़ मागहए य आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणए जाव' णो चेव णं अदिण्णे, से वि य सिणाइत्तए णो चेव णं हत्थपायचरुचमसपक्खालणट्ठयाए पिबित्तए वा।
९८- अम्बड को मागधमान (मगध देश के तोल) के अनुसार आधा आढक जल लेना कल्पता है। वह भी प्रवहमान बहता हुआ हो, अप्रवहमान—न बहता हुआ नहीं हो। (वह भी यदि स्वच्छ हो, तभी ग्राह्य है, कीचड़ युक्त हो तो ग्राह्य नहीं है। स्वच्छ होने के साथ-साथ वह बहुत प्रसन्न –बहुत साफ और निर्मल हो, तभी ग्राह्य है, अन्यथा नहीं।) वह परिपूत वस्त्र से छाना हुआ हो तो कल्प्य है, अनछाना नहीं। वह भी सावध अवध या पाप सहित समझकर, निरवद्य समझकर नहीं। सावध भी वह उसे सजीव-जीव सहित समझकर ही लेता है, अजीव–जीव रहित समझकर नहीं। वैसा जल भी दिया हुआ ही कल्पता है, न दिया हुआ नहीं। वह भी हाथ, पैर, चरु—भोजन का पात्र, चमस—काठ की कड़छी–चम्मच धोने के लिए या पीने के लिए ही कल्पता है, नहाने के
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देखें सूत्र संख्या ८०