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औपपातिकसूत्र गहियटे, पुच्छियटे, अभिगयटे, विणिच्छियटे, अद्विमिंजपेमाणुरागरते, अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अढे अयं परमटे, सेप्ते अणटे, चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ट-पुण्णमासीणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेत्ता समणे निग्गंथे फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं, वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं, ओसहभेसजेणं पाडिहारिएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणे) अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, णवरं ऊसियफलिहे, अवंगुयदुवारे, चियत्तंतेउरघरदारपवेसी, एयं णं वुच्चइ।
९४– गौतम! ऐसा संभव नहीं है वह अनगार धर्म में दीक्षित नहीं होगा। अम्बड परिव्राजक श्रमणोपासक है, जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह समझ लिया है, (पुण्य और पाप का भेद जान लिया है, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण—जिसके आधार से क्रिया की जाए, बन्ध एवं मोक्ष को जो भलीभाँति अवगत कर चुका है, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक है—आत्म-निर्भर है, जो देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अनतिक्रमणीय-न विचलित किए जा सकने योग्य है, निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो निःशंक शंका रहित, निष्कांक्षआत्मोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा रहित, निर्विचिकित्स—संशय-रहित, लब्धर्था—धर्म के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किए हुए, गृहीतार्थ—उसे ग्रहण किए हुए, पृष्टार्थ जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थिर किए हुए, अभिगतार्थ स्वायत्त किए हुए, विनिश्चितार्थ निश्चित रूप में आत्मसात किए हुए है एवं जो अस्थि एवं मज्जा पर्यन्त धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा है, जिसका यह निश्चित विश्वास है कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ—प्रयोजनभूत है, इसके सिवाय अन्य अनर्थ—अप्रयोजनभूत हैं, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या तथा पूर्णिमा को जो परिपूर्ण पोषध का अच्छी तरह अनुपालन करता हुआ, श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक–अचित्त या निर्जीव, एषणीय—उन द्वारा स्वीकार करने योग्यनिर्दोष अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन, औषध, भेषज, प्रातिहारिक लेकर वापस लौटा देने योग्य वस्तु, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि द्वारा श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रतिलाभित करता हुआ आत्मभावित है।
विशेष यह है—उच्छ्रित-स्फटिक—जिसके घर के किवाड़ों में आगल नहीं लगी रहती हो, अपावृतद्वारजिसके घर का दरवाजा कभी बन्द नहीं रहता हो, त्यक्तान्तःपुर गृह द्वार प्रवेश—शिष्ट जनों के आवागमन के कारण घर के भीतरी भाग में उनका प्रवेश जिसे अप्रिय नहीं लगता हो—प्रस्तुत पाठ के साथ आने वाले ये तीन विशेषण यहाँ प्रयोज्य नहीं हैं लागू नहीं होते। क्योंकि अम्बड परिव्राजक-पर्याय से श्रमणोपासक हुआ था, गृही से नहीं, वह स्वयं भिक्षु था। उसके घर था ही नहीं। ये विशेषण अन्य श्रमणोपासकों के लिए लागू होते हैं।
९५- अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए जाव (थूलए मुसावाए, थूलए अदिण्णादाणे, थूलए) परिग्गहे णवरं सव्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावजीवाए।
९५-किन्तु अम्बड परिव्राजक ने जीवनभर के लिए स्थूल प्राणातिपात स्थूल हिंसा (स्थूल मृषावाद स्थूल असत्य, स्थूल अदत्तादान स्थूल चौर्य, स्थूल) परिग्रह तथा सभी प्रकार के अब्रह्मचर्य का प्रत्याख्यान है।
९६- अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पइ अक्खसोयप्पमाणमेत्तंपि जलं सयराहं उत्तरित्तए, णण्णस्थ अद्धाणगमणेणं। अम्मडस्स णं णो कप्पइ सगडं वा एवं तं चेव भाणियव्वं णण्णत्थ एगाए