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चमत्कारी अम्बड परिव्राजक
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९२ – गोयमा ! अम्मडस्स णं परिव्वायगस पगइभद्दयाए जाव (पगइउवसंतयाए, पगड़पतणुकोहमाणमायालोहयाए, मिउमद्दवसंपण्णयाए अल्लीणयाए, ) विणीययाए छद्वंद्वेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्डुं बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं, पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं, पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं अन्नया कयाइ तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहामग्गणगवेसणं करेमाणस्स वीरियलद्धीए, वेडव्वियलद्धीए, ओहिणाणलद्धीए समुप्पण्णाए जणविम्हाणहेउं कंपिल्लपुरे णगरे घरसए जाव' वसहि उवेइ । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चई अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णगरे घरसए जाव' वसहिं उवेइ ।
९२ - गौतम ! अम्बड प्रकृति से भद्र सौम्यव्यवहारशील – परोपकारपरायण एवं शान्त है। वह स्वभावतः क्रोध, मान, माया एवं लोभ की प्रतनुता — हलकापन लिए हुए है इनकी उग्रता से रहित है। वह मृदुमार्दवसम्पन्न—अत्यन्त कोमल स्वभावयुक्त — अहंकाररहित, आलीन—– गुरुजनों का आज्ञापालक तथा विनयशील है। उसने बे बेले का—दो दो दिनों का उपवास करते हुए, अपनी भुजाएँ ऊँची उठाये, सूरज के सामने मुँह किए आतापना - भूमि
तापना लेते हुए तप का अनुष्ठान किया। फलतः शुभ परिणाम पुण्यात्मक अन्तःपरिणति, प्रशस्त अध्यवसायउत्तम मन:संकल्प, विशुद्ध होती हुई प्रशस्त - लेश्याओं - पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से होने वाले आत्मपरिणामों या विचारों के कारण, उसके वीर्य - लब्धि, वैक्रिय-लब्धि तथा अवधिज्ञान-लब्धि के आवरक कर्मों का क्षयोपशम हुआ। ईहा—यह क्या है, यों है या दूसरी तरह से है, इस प्रकार सत्य अर्थ के आलोचन में अभिमुख बुद्धि, अपोह— यह इसी प्रकार है, ऐसी निश्चयात्मक बुद्धि, मार्गण — अन्वयधर्मोन्मुख चिन्तन — अमुक के होने पर अमुक होता है, ऐसा चिन्तन, गवेषण ——-व्यतिरेकधर्मोन्मुख चिन्तन — अमुक के न होने पर अमुक नहीं होता, ऐसा चिन्तन करते हुए उसको किसी दिन वीर्य - लब्धि-विशेष शक्ति, वैक्रिय - लब्धि—— अनेक रूप बनाने का सामर्थ्य तथा अवधिज्ञानलब्धि – अतीन्द्रिय रूपी पदार्थों को सीधे आत्मा द्वारा जानने की योग्यता प्राप्त हो गई। अतएव जनविस्मापन हेतु — लोगों को आश्चर्य चकित करने के लिए इनके द्वारा वह काम्पिल्यपुर में एक ही समय में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है। गौतम ! वस्तुस्थिति यह है । इसीलिए अम्बड परिव्राजक के द्वारा काम्पिल्यपुर में सौ घरों में आहार करने तथा सौ घरों में निवास करने की बात कही जाती है।
९३— पहू णं भंते ! अम्मडे परिव्वायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ?
९३ – भगवान् ! क्या अम्बड परिव्राजक आपके पास मुण्डित होकर — दीक्षित होकर अगार अवस्था से अनगार - अवस्था ——– महाव्रतमय श्रमण - जीवन प्राप्त करने में समर्थ है ?
९४ – णो इणट्ठे समट्ठे, गोयमा ! अम्मडे परिव्वायए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव (उवलद्धपुण्णपावे, आसव-संवर- निज्जर-किरिया अहिगरण-बंध- मोक्ख-कुसले, असेहज्जे, देवासुरणागसुवण्ण-जक्ख-रक्खस- किण्णर- किंपुरिस - गरुल- गंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिक्कंखिए, निव्वितिगिच्छे, लद्धट्ठे,
१ - २. देखें सूत्र संख्या ९०