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________________ अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ अन्तेवासी १३५ परस्पर एक दूसरे से ऐसा कह उन्होंने यह तय किया। ऐसा तय कर, उन्होंने त्रिदण्ड आदि अपने उपकरण एकान्त में डाल दिये। वैसा कर महानदी गंगा में प्रवेश किया। फिर बालू का संस्तारक तैयार किया। संस्तारक तैयार कर वे उस पर आरूढट——अवस्थित हुए । अवस्थित होकर पूर्वाभिमुख हो पद्मासन में बैठे। बैठकर दोनों हाथ जोड़े और बोले— ८७- "नमोत्थु णं अरहंताणं जाव ( भगवंताणं, आइगराणं, तित्थगराणं, सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरीयाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोयगराणं, अभयदयाणं, चक्खुदयाणं मग्गदयाणं, सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं, दीवो, ताणं, सरणं, गई, पइट्ठा, अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं वियट्टछउमाणं, जिणाणं, जावयाणं, तिण्णाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोयगाणं, सव्वण्णूणं, सव्वदरिसीणं, सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तगं, सिद्धिगइणामधेज्जं, ठाणं ) संपत्ताणं । नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव' संपाविउकामस्स, नमोत्थु णं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स । पुव्विं णं अम्हेहिं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अंतिम भूलगपाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए, मुसावाए अदिण्णादाणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, सव्वे दुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, थूलए परिग्गहे पंच्चक्खाए जावज्जीवाए, इयाणिं अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामो जावज्जीवाए, एवं जावं (सव्वं मुसावायं पच्चक्खामो जावज्जीवाए, सव्वं अदिण्णादाणं पच्चक्खामो जावज्जीवाए, सव्वं मेहुणं पच्चक्खामो जावज्जीवाए) सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामो जावज्जीवाए, सव्वं कोहं, माणं, मायं, लोहं, पेज्जं, दोसं, कलहं, अब्भक्खाणं, पेसुण्णं, परपरिवार्य, अरइरई, मायामोस, मिच्छादंसणसल्लं, अकरणिज्जं जोगं पच्चक्खामो जावज्जीवाए, सव्वं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं चव्विहं पि आहारं पच्चक्खामो जावज्जीवाए । जं पि य इमं सरीरं, कंतं, पियं, मणुण्णं, मणामं, पेज्जं, थेज्जं, वेसासियं, संमयं, बहुमयं, अणुमयं, भंडकरंडगसमाणं, मा णं सीयं, मा णं उन्हं, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं वाला, मा णं चोरा, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइयपित्तियसंनिवाइयविविहा रोगायंका, परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कट्टु एयंपि णं चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं वोसिरामि" त्ति कट्टु संलेहणाझूसणाझूसिया भत्तपाणपडियाइक्खिया पाओवगया कालं अणवकंखमाणा विहरंति । ८७– - अर्हत् — इन्द्र आदि द्वारा पूजित अथवा कर्मशत्रुओं के नाशक, भगवान् आध्यात्मिक ऐश्वर्य सम्पन्न, आदिकर अपने युग में धर्म के आद्य प्रवर्तक, तीर्थंकर — साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्मतीर्थधर्मसंघ के प्रवर्तक, स्वयंसंबुद्ध स्वयं — बिना अन्य निमित्त के बोधप्राप्त, पुरुषोत्तम पुरुषों में उत्तम, पुरुषसिंह— आत्मशौर्य में पुरुषों में सिंह- सदृश, पुरुषवरपुण्डरीक सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने के कारण पुरुषों में १. देखें सूत्र संख्या २०
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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