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________________ १३४ औपपातिकसूत्र गोकुल आदि का आवागमन नहीं है, जिसके रास्ते बड़े विकट हैं) कुछ ही भाग पार कर पाये कि हमारे पास जो पानी था, (पीते-पीते क्रमशः) समाप्त हो गया। अतः देवानुप्रियो! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है, हम इस ग्रामरहित वन में सब दिशाओं में चारों ओर जलदाता को मार्गणा-गवेषणा–खोज करें। उन्होंने परस्पर ऐसी चर्चा कर यह तय किया। ऐसा तय कर उन्होंने उस गाँव रहित जंगल में सब दिशाओं में चारों ओर जलदाता की खोज की। खोज करने पर भी कोई जलदाता नहीं मिला। फिर उन्होंने एक दूसरे को संबोधित कर कहा ८६-"इह णं देवाणुप्पिया! उदगदातारो णत्थि, तं णो खलु कप्पइ अम्हं अदिण्णं गिण्हित्तए, अदिण्णं साइजित्तए, तं मा णं.अम्हे इयाणिं आवइकालं पि अदिण्णं गिण्हामो, अदिण्णं साइजामो, मा णं अम्हं तवलोवे भविस्सइ। तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! तिदंडयं कुंडियाओ य, कंचणियाओ य, करोडियाओ य, भिसियाओ य, छण्णालए य, अंकुसए य, केसरियाओ य, पवित्तए य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउणाओ य, धाउरत्ताओ एगंते एडित्ता गंगं महाणइं ओगाहित्ता वालुयासंथारए संथरित्ता संलेहणाझूसियाणं, भत्तपाणपडियाइक्खियाणं, पाओवगयाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए" त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पडिसुणेति, अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढे पडिसुणित्ता तिदंडए य जाव (कुंडियाओ य, कंचणियाओ य, करोडियाओ य, भिसियाओ य, छण्णालए य, अंकुसए य, केसरियाओ य, पवित्तए य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ य, धाउरत्ताओ य) एगते एउंति, एडित्ता गंगं महाणइं ओगाहेंति, ओगाहित्ता वालुआसंथारए संथरंति, संथरित्ता बालुयासंथारयं दुरूहिंति, दुरूहित्ता पुरत्थाभिमुहा संपलियंकनिसण्णा करयल जाव' कटु एवं वयासी ८६- देवानुप्रियो! यहाँ कोई पानी देने वाला नहीं है। अदत्त—बिना दिया हुआ लेना, सेवन करना हमारे लिए कल्प्य ग्राह्य नहीं है। इसलिए हम इससमय आपत्तिकाल में भी अदत्त का ग्रहण न करें, सेवन न करें, जिससे हमारे तप व्रत का लोप भंग न हो। अतः हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि, हम त्रिदण्ड–तीन दंडों या वृक्ष-शाखाओं को एक साथ बाँधकर या मिलाकर बनाय गया एक दंड, कुण्डिकाएँ-कमंडलु, काञ्चनिकाएँ–रुद्राक्ष मालाएं, करोटिकाएँ मृत्तिका या मिट्टी के पात्र-विशेष, वृषिकाएँ-बैठने की पटड़ियाँ, षण्नालिकाएँ–त्रिकाष्ठिकाएँ, अंकुश—देव पूजा हेतु वृक्षों के पत्ते संचीर्ण, संगृहीत करने में उपयोग में लेने के अंकुश, केशरिकाएँ-प्रमार्जन के निमित्त सफाई करने, पोंछने आदि के उपयोग में लेने योग्य वस्त्र खण्ड, पवित्रिकाएँ ताँबे की अंगूठिकाएँ, गणेत्रिकाएँ हाथों में धारण करने की रुद्राक्ष-मालाएँ सुमिरिनियाँ, छत्र-छाते, पैरों में धारण करने की पादुकाएँ, काठ की खड़ाऊएँ, धातुरक्त-गेरु से रंगी हुई गेरुए रंग की शाटिकाएँ–धोतियाँ एकान्त में छोड़कर गंगा महानदी में (गंगा के बालुका भाग में) बालू का संस्तारक—बिछौना तैयार कर (गंगा महानदी को पार कर) संलेखनापूर्वकदेह और मन को तपोमय स्थिति में संलीन करते हुए शरीर एवं कषायों को विराधक संस्कारों एवं भावों को क्षीण करते हुए आहार-पानी का परित्याग कर, कटे हुए वृक्ष जैसी निश्चेष्टावस्था स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए संस्थित हों। १. देखें सूत्र संख्या ४७।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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