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द्विद्रव्यादिसेवी मनुष्यों का उपपात
१२१ करती हों, जो अस्नान स्नानाभाव, स्वेद-पसीने, जल्ल रज, मल्ल-सूखकर देह पर जमे हुए मैल, पंकपसीने से मिलकर गीले हुए मैल से पारितापित—पीड़ित रहती हों, जो दूध दही मक्खन घृत तैल गुड़ नमक मधु मद्य और मांस रहित आहार करती हों, जिनकी इच्छाएं बहुत कम हों, जिनके धन, धान्य आदि परिग्रह बहुत कम हों, जो अल्प आरम्भ समारंभ –बहुत कम जीव-हिंसा, जीव-परितापन द्वारा अपनी जीविका चलाती हों, अकाममोक्ष की अभिलाषा या लक्ष्य के बिना जो ब्रह्मचर्य का पालन करती हों, पति-शय्या का अतिक्रमण नहीं करती हों—उपपति स्वीकार नहीं करती हों इस प्रकार के आचरण द्वारा जीवनयापन करती हों, वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हुए, आयुष्य पूरा कर, मृत्यु काल आने पर देह-त्याग कर वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होती हैं। प्राप्त देव-लोक के अनुरूप उनकी गति, स्थिति तथा उत्पत्ति होती है। वहाँ उनकी स्थिति चौसठ हजार वर्षों की होती है। द्विद्रव्यादिसेवी मनुष्यों का उपपात
७३-से जे इमे गामागर जाव' संनिवेसेसु मणुया भंवति, तं जहा–दगबिइया, दगतइया, दगसत्तमा, दगएक्कारसमा, गोयम-गोव्वइय-गिहिधम्म-धम्मचिंतग-अविरुद्ध-विरुद्ध-वुड्ड-सावगप्पभितयो, तेसि णं मणुयाणं णो कप्पति इमाओ नवरसविगइओ आहारेत्तए, तं जहा-खीरं, दहि, णवणीयं, सप्पिं, तेल्लं, फाणियं, महुं, मजं, मंसं, णो अण्णत्थ एक्काए सरिसवविगइए। ते णं मणुया अप्पिच्छा तं चेव सव्वं णवरं चउरासीइं वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता।
७३– जो ग्राम तथा सन्निवेश आदि पूर्वोक्त स्थानों में मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, जो उदक द्वितीय एक भात खाद्य पदार्थ तथा दूसरा जल, इन दो पदार्थों का आहार रूप में सेवन करनेवाले, उदकतृतीय-भात आदि दो पदार्थ तथा तीसरे जल का सेवन करने वाले, उदकसप्तम भात आदि छह पदार्थ तथा सातवें जल का सेवन करने वाले, उदकैकादश-भात आदि दश पदार्थ तथा ग्यारहवें जल का सेवन करने वाले, गोतम विशेष रूप से प्रशिक्षित ठिंगने बैल द्वारा विविध प्रकार के मनोरंजक प्रदर्शन प्रस्तुत कर भिक्षा मांगने वाले, गोव्रतिक–गो-सेवा का विशेष व्रत स्वीकार करने वाले, गृहधर्मी-गृहस्थधर्म अतिथिसेवा दान आदि से सम्बद्ध गृहस्थ-धर्म को ही कल्याणकारी मानने वाले एवं उनका अनुसरण करने वाले, धर्मचिन्तक—धर्मशास्त्र के पाठक, सभासद या कथावाचक, अविरुद्ध वैनयिक विनयाश्रित, भक्तिमार्गी, विरुद्ध अक्रियावादी—आत्मा आदि को अस्वीकार कर बाह्य तथा आभ्यन्तर दृष्टियों से क्रिया-विरोधी, वृद्ध तापस, श्रावक-धर्मशास्त्र के श्रोता, ब्राह्मण आदि, जो दूध, दही, मक्खन, घृत, तेल, गुड़, मधु, मद्य तथा मांस को अपने लिए अकल्प्य—अग्राह्य मानते हैं, सरसों के तेल के सिवाय इनमें से किसी का सेवन नहीं करते, जिनकी आकांक्षाएं बहुत कम होती हैं,..................... ऐसे मनुष्य पूर्व वर्णन के अनुरूप मरकर वानव्यन्तर देव होते हैं। वहाँ उनका आयुष्य ८४ हजार वर्ष का बतलाया गया
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विवेचन— प्रस्तुत सूत्र में ऐसे लोगों की चर्चा है, जो सम्यक्त्वी नहीं होते पर किन्हीं विशेष कठिन व्रतों का आचरण करते हैं, अपनी मान्यता के अनुसार अपनी विशेष साधना में लगे रहते हैं, जो कम से कम सुविधाएँ और
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देखें सूत्र संख्या ७१