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औपपातिकसूत्र
अनुकूलताएँ स्वीकार करते हैं, कष्ट झेलते हैं, वे वानव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा बतलाया गया है।
यहाँ आया हुआ गोव्रतिक शब्द विशेष रूप से विमर्शयोग्य है, वैदिक परम्परा में गाय को बहुत पूज्य माना गया है, उसे देव-स्वरूप कहा गया है। अतएव गो-उपासना का एक विशेष क्रम भारत में रहा है। महाकवि कालिदास ने रघुवंश के दूसरे सर्ग में इस सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया है। अयोध्याधिपति महाराज दिलीप के कोई सन्तान नहीं थी। उनके गुरु महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि कामधेनु की बेटी नन्दिनी की सेवा से उन्हें पुत्र-प्राप्ति होगी। राजा दिलीप ने सपत्नीक गुरु के आश्रम में रहते हुए, जहाँ नन्दिनी थी, उसकी बहुत सेवा की। उसको परम उपास्य देवता और आराध्य मानकर तन मन से उसकी सेवा में राजा और रानी जुट गये। महाकवि ने बड़े सुन्दर शब्दों में लिखा है
"नन्दिनी जब खड़ी होती, राजा खड़ा होता, जब वह चलती, राजा चलता, जब वह बैठती, राजा बैठता, जब वह पानी पीती, राजा पानी पीता। अधिक क्या, राजा काया की तरह नन्दिनी के पीछे-पीछे चलता है।"
वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि ने भी प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में गोव्रत की विशेष रूप से चर्चा की है। उन्होंने लिखा है
"गायों के गाँव से बाहर निकलने पर गोव्रतिक बाहर निकलते हैं। वे जब चलती हैं, वे चलते हैं अथवा वे जब चरती हैं घास खाती हैं, वे भोजन करते हैं। वे जब पानी पीती हैं, वे पानी पीते हैं। वे आती हैं, तब वे आते हैं। वे सो जाती हैं, तब वे सोते हैं।"२
महाकवि कालीदास तथा आचार्य अभयदेवसूरि द्वारा प्रकट किये गये भावों की तुलना करने पर दोनों की सन्निकटता स्पष्ट प्रतीत होती है।
जैसा प्रस्तुत सूत्र में संकेत है, विनयाश्रित भक्तिवादी उपासना की भी भारतवर्ष में एक विशिष्ट परम्परा रही है। इस परम्परा से सम्बद्ध उपासक हर किसी को विनतभाव से प्रणाम करना अपना धर्म समझते हैं। आज भी यत्रतत्र व्रज आदि में कुछ ऐसे व्यक्ति दिखाई देते हैं, जो सभी को प्रणाम करने में तत्पर देखे जाते हैं। वानप्रस्थों का उपपात
७४-से जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति, तं जहाहोत्तिया, पोत्तिया, कोत्तिया,
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स्थितः स्थितामुच्चलितः प्रयातां, निषेदुषीमासनबन्धधीरः । जलाभिलाषी जलमाददानां, छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् ॥
-रघुवंशमहाकाव्य २.६ गोव्रतं येषामस्ति ते गोव्रतिकाः । ते हि गोषु ग्रामानिर्गच्छन्तीषु निर्गच्छन्ति, चरन्तीषु चरन्ति, पिबन्तीसु पिबन्ति, आयान्तीष्वायान्ति, शयनासु च शेरेते इति, उक्तं च"गावीहि समं निग्गमपवेससयणासणाइ पकरेंति । भुंजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विहाविता ॥"
-औपपातिकसूत्र वृत्ति पत्र ८९, ९०