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________________ '१२० औपपातिकसूत्र ___७१- (वे) जो जीव ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संवाह, सन्निवेश में मनुष्यरूप में उत्पन्न होते हैं, जो प्रकृतिभद्र सौम्य व्यवहारशील–परोपकारपरायण, शान्त, स्वभावतः क्रोध, मान, माया एवं लोभ की प्रतनुता—हलकापन लिये हुए इनकी उग्रता से रहित, मृदु मार्दवसम्पन्न —अत्यन्त कोमल स्वभावयुक्त—अहंकार रहित, आलीन—गुरुजन के आश्रित—आज्ञापालक, विनीत विनयशील, मातापिता की सेवा करने वाले, माता-पिता के वचनों का अतिक्रमण उल्लंघन नहीं करने वाले, अल्पेच्छा—बहुत कम इच्छाएँ, आवश्यकताएँ रखनेवाले, अल्पारंभ अल्पहिंसायुक्त कम से कम हिंसा करने वाले, अल्पपरिग्रहधन, धान्य आदि परिग्रह के अल्प परिणाम से परितुष्ट, अल्पारंभ अल्पसमारंभ-जीव-हिंसा एवं जीव-परितापन की न्यूनता द्वारा आजीविका चलानेवाले बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हुए, आयुष्य पूरा कर, मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। अवशेष वर्णन पिछले सूत्र के सदृश है। केवल इतना अन्तर है—इनकी स्थिति आयुष्यपरिमाण चौदह हजार वर्ष का होता है। परिक्लेशबाधित नारियों का उपपात ७२- से जाओ इमाओ गामागर जाव' संनिवेसेसु इत्थियाओ भवंति, तं जहा–अंतो अंतउरियाओ, गयपइयाओ, मयपइयाओ, बालविहवाओ, छड्डियल्लियाओ, माइरक्खियाओ, पियरक्खियाओ, भायरक्खियाओ, कुलघररक्खियाओ, ससुरकुलरक्खियाओ, मित्तनाइनियगसंबंधिरक्खियाओ, परूढणहकेस-कक्खरोमाओ, ववगयधूवपुष्फगंधमल्लालंकाराओ, अण्हाणगसेयजल्लमल्लपंकपरितावियाओ, ववगयखीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेल्ल-गुल-लोण-महु-मज्ज-मस-परिचत्तकयाहाराओ, अप्पिच्छाओ, अप्पारंभाओ, अप्पपरिग्गहाओ, अप्पेणं आरंभेणं, अप्पेणं समारंभेणं, अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणीओ अकामबंभचेरवासेणं तामेव पइसेजं णाइक्कमंति, ताओ णं इत्थियाओ एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणीओ बहूई वासाइं (आउयं पालेंति, पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएस देवत्ताए-उववत्तारीओ भवंति, तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई, तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते। तेसिं णं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा!) चउसटुिं बाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। ७२-(ये) जो ग्राम, सन्निवेश आदि में स्त्रियाँ होती हैं-स्त्रीरूप में उत्पन्न होती हों, जो अन्तःपुर के अन्दर निवास करती हों, जिनके पति परदेश गये हों, जिनके पति मर गये हों, जो बाल्यावस्था में ही विधवा हो गई हों, जो पतियों द्वारा परित्यक्त कर दी गई हों, जो मातृरक्षिता हों जिनका पालन-पोषण, संरक्षण माता द्वारा होता हो, जो पिता द्वारा रक्षित हों, जो भाइयों द्वारा रक्षित हों, जो कुलगृह-पीहर द्वार—पीहर के अभिभावकों द्वारा रक्षित हों, जो श्वसुर-कुल द्वारा श्वसुर कुल के अभिभावकों द्वारा रक्षित हों, जो पति या पिता आदि के मित्रों, अपने हितैषियों मामा, नाना आदि सम्बन्धियों, अपने सगोत्रीय देवर, जेठ आदि पारिवारिक जनों द्वारा रक्षित हों, विशेष परिष्कारसंस्कार के अभाव में जिनके नख, केश, कांख के बाल बढ़ गये हों, जो धूप (धूप, लोबान तथा सुरभित औषधियों द्वारा केश, देह आदि पर दिये जाने वाले, वासित किये जाने वाले धुएँ), पुष्प, सुगन्धित पदार्थ, मालाएँ धारण नहीं १. देखें सूत्र-संख्या ७१
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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