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________________ भद्र प्रकृति जनों का उपपात ११९ परिणामों की इतनी-सी विशेषता रहती है, वे कष्ट सहते हुए आर्त, रौद्र भाव से अभिभूत नहीं होते, अविचल रहते हुए, अत्यन्त दृढ़ता से उन कष्टों को सहते हुए मर जाते हैं। अतएव उन द्वारा किया गया वह कष्ट-सहन अकामनिर्जरा में आता है, जिसके फलस्वरूप वे देवयोनि प्राप्त करते हैं। आगे ऐसे लोगों की चर्चा है, जो संयम से पतित हो जाने से या सांसारिक अभीप्साओं या भौतिक कामनाओं की पूर्ति न होने से इतने दुःखित, निराश तथा विषादग्रस्त हो जाते हैं कि जीवन का भार ढो पाना उन्हें अशक्य प्रतीत होता है। फलतः वे फाँसी लगाकर, पानी में डूबकर, पर्वत से झंपापात कर, आग में कूदकर, जहर खाकर या ऐसे ही किसी अन्य प्रकार से प्राण त्याग देते हैं। यदि दुःख झेलते हुए, मरते हुए उनके परिणाम संक्लेशमय, तीव्र आर्तरौद्र ध्यानमय नहीं होते, तो वे मरकर वानव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। यों प्राण-त्याग करना क्या आत्महत्या नहीं है ? आत्महत्या तो बहुत बड़ा पाप है, आत्मघाती देव कैसे होते हैं ? इत्यादि अनेक शंकाएँ यहाँ खड़ी होती हैं। बात सही है, आत्मघाती महापापी' के अनुसार आत्महत्या घोर पाप है, नरक का हेतु है पर यहाँ जो प्रसंग वर्णित है, वह आत्महत्या में नहीं जाता। क्योंकि वैसे मरने वालों की भावना होती है, वह सांसारिक दुःखों से छूट नहीं पा रहा है, उसकी कामनाएँ पूर्ण नहीं हो रही हैं। उसका लक्ष्य सध नहीं पा रहा है। मरना ही उसके लिए शरण है। पर, वह मरते वक्त भयाक्रान्त नहीं होता, मन में आकुल तथा उद्विग्न नहीं होता। वह परिणामों में अत्यधिक दृढ़ता लिये रहता है। उसके भाव संक्लिष्ट नहीं होते। वह आर्त, रौद्र ध्यान में एकदम निमग्न नहीं होता। इस प्रकार उसके अकामनिर्जरा सध जाती है और वह देवयोनि प्राप्त कर लेता है। जो आत्महत्या करता है, मरते समय वह अत्यन्त कलुषित, क्लिष्ट एवं दूषित परिणामों से ग्रस्त होता है। इसीलिए वह घोर पापी कहा जाता है। वास्तव में आत्महत्या करने वाले के अन्त समय के परिणामों की धारा बड़ी जघन्य तथा निम्न कोटि की होती है। वह घोर आर्त-रौद्र-भाव में निपतित हो जाता है। वह बहुत ही शोक-विह्वल हो जाता है, संभवतः यह सोचकर कि प्राण, जिनसे बढ़कर जगत् में कुछ भी नहीं है, जो सर्वाधिक प्रिय हैं, हाय! उनसे यह वंचित हो रहा है। कितनी बड़ी भूल उससे हुई। ऊपर स्वयं मृत्यु स्वीकार करने वाले जिन लोगों की चर्चा है, वे अन्त समय में मन में ऐसे परिणाम नहीं लाते। भद्र प्रकृति जनों का उपपात ७१- से जे इमे गामागर जाव (णयरणिगमरायहाणिखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाह) संनिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा—पगइभद्दगा, पगइउवसंता, पगइपतणुकोहमाणमायालोहा, मिउमद्दवसंपण्णा, अल्लीणा, विणीया, अम्मापिउसुस्सूसगा, अम्मापिईणं अणइक्कमणिजवयणा, अप्पिच्छा, अप्पारंभा, अप्पपरिग्गहा, अप्पेणं आरंभेणं, अप्पेणं समारंभेणं, अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा बहूई वासाइं आउयं पालेंति, पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु तं चेव सव्वं णवरं ठिई चउद्दसवासहस्साइं।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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