SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ औपपातिकसूत्र जाते हैं, जिनके बायें कन्धे से लेकर दाहिनी काँख तक के देह-भाग मस्तक सहित विदीर्ण कर दिये जाते हैं, हृदय चीर दिये जाते हैं—कलेजे उखाड़ दिये जाते हैं, आँखें निकाल ली जाती हैं, दाँत तोड़ दिये जाते हैं, जिनके अण्डकोष उखाड़ दिये जाते हैं, गर्दन तोड़ दी जाती है, चावलों की तरह जिनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाते हैं, जिनके शरीर का कोमल मांस उखाड़ कर जिन्हें खिलाया जाता है, जो रस्सी से बाँध कर कुए खड्डे आदि में लटका दिये जाते हैं, वृक्ष की शाखा में हाथ बाँध कर लटका दिये जाते हैं, चन्दन की तरह पत्थर आदि पर घिस दिये जाते हैं, पात्र-स्थित दही की तरह जो मथ दिये जाते हैं, काठ की तरह कुल्हाड़े से फाड़ दिये जाते हैं, जो गन्ने की तरह कोल्हू में पेल दिये जाते हैं, जो सूली में पिरो दिये जाते हैं, जो सूली से बींध दिये जाते हैं जिनके देह से लेकर मस्तक में से सूली निकाल ली जाती है, जो खार के बर्तन में डाल दिये जाते हैं, जो बर्द्ध-गीले चमड़े से बाँध दिये जाते हैं. जिनकी जननेन्द्रिय काट दी जाती है, जो दवाग्नि में जल जाते हैं.कीचड में डब जाते हैं.कीचड में फंस जाते हैं, संयम से भ्रष्ट होकर या भूख आदि से पीड़ित होकर—परिषहों से घबराकर मरते हैं, जो विषयपरतन्त्रता से पीड़ित या दुःखित होकर मरते हैं, जो सांसारिक इच्छा पूर्ति के संकल्प के साथ अज्ञानमय तपपूर्वक मरते हैं, जो अन्तःशल्य-भावशल्य कलुषित भावों के काँटे को निकाले बिना या भाले आदि से अपने आपको बेधकर मरते हैं, जो पर्वत से गिरकर मरते हैं अथवा अपने पर बहुत बड़ा पत्थर गिराकर मरते हैं, जो वृक्ष से गिरकर मरते हैं, मरुस्थल या निर्जल प्रदेश में मर जाते हैं अथवा मरुस्थल के किसी स्थान से बड़े टीले आदि से गिरकर मरते हैं, जो पर्वत से झंपापात कर—छलांग लगा कर मरते हैं, वृक्ष से छलांग लगा कर मरते हैं, मरुभूमि की बालू में गिरकर मरते हैं, जल में प्रवेश कर मरते हैं, अग्नि में प्रवेश कर मरते हैं, जहर खाकर मरते हैं, शस्त्रों से अपने आपको विदीर्ण कर मरते हैं, जो वृक्ष की डाली आदि से लटककर फाँसी लगाकर मरते हैं, जो मरे हुए मनुष्य, हाथी, ऊँट, गधे आदि की देह में प्रविष्ट होकर गीधों की चोंचों से विदारित होकर मरते हैं, जो जंगल में खोकर मर जाते हैं, जो दुर्भिक्ष में भूख, प्यास आदि से मर जाते हैं, यदि उनके परिणाम संक्लिष्ट अर्थात् आर्त-रौद्र ध्यान युक्त न हों तो उस प्रकार मृत्यु प्राप्त कर वे वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ उस लोक के अनुरूप उनकी गति, स्थिति तथा उत्पत्ति होती है ऐसा बतलाया गया है। भगवन् ! उन देवों की वहाँ कितनी स्थिति होती है ? गौतम! वहाँ उनकी स्थिति बारह हजार वर्ष की होती है। भगवन् ! उन देवों के वहाँ ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य तथा पुरुषकार-पराक्रम होता है या नहीं ? गौतम! ऐसा होता है। भगवन्! क्या वे देव परलोक के आराधक होते हैं ? गौतम! ऐसा नहीं होता—वे देव परलोक के आराधक नहीं होते। विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में पहले ऐसे लोगों की चर्चा है, जिन्हें अपराधवश, वैमनस्य या द्वेषवश किन्हीं द्वारा घोर कष्ट दिया जाता है, जिससे वे प्राण छोड़ देते हैं। यदि यों कष्टपूर्वक मरते समय उनके मन में तीव्र आर्त, रौद्र परिणाम नहीं आते तो उनका वान-व्यन्तर देवों में उत्पन्न होना बतलाया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि वे मिथ्यात्वी होते हैं, उन द्वारा कष्ट-सहन मोक्षाभिमुख या कर्मक्षयाभिमुख उच्च भाव से नहीं होता पर उनके
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy