________________
इन्द्रभूति गौतम की जिज्ञासा
११३ यों कहकर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया।
६१- तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव' हिययाओ उट्ठाए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-"सुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव' किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ?" एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूयाओ, तामेव दिसिं पडिगयाओ।
६१- सुभद्रा आदि रानियाँ श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर हृष्ट-तुष्ट हुईं, मन में आनन्दित हुईं। अपने स्थान से उठीं। उठकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। वैसा कर भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर वे बोली "निर्ग्रन्थ-प्रवचन सुआख्यात है......सर्वश्रेष्ठ है.... इत्यादि पूर्ववत।"
यों कह कर वे जिस दिशा से आई थीं, उसी दिशा की ओर चली गईं। इन्द्रभूति गौतम की जिज्ञासा
६२- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे, समचउरंससंठाणसंठिए, वइररिसहणारायसंघयणे, कणगपुलगणिघसपम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, घोरतवे, उराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उज्छूढसरीरे, संखित्तविउलतेउलेस्से समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उझुंजाणू, अहोसिरे, झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं विहरइ।
६२– उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊँचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्र-संस्थान संस्थित थे—देह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचनामय शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराचसंहनन सुदृढ अस्थि-बन्धयुक्त विशिष्ट देह-रचनायुक्त थे, कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी कर्मों को भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्त तपस्वी जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त थी, जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे, जो उराल—प्रबल साधना में सशक्त, घोरगुण—परम उत्तम जिनको धारण करने में अद्भुत. शक्ति चाहिए ऐसे गुणों के धारक, घोर तपस्वी-प्रबल तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उत्क्षिप्तशरीर—दैहिक सार-सम्भाल या सजावट से रहित थे, जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे, भगवान् महावीर से न अधिक दूर न अधिक समीप-समुचित स्थान पर संस्थित हो, घुटने ऊँचे किये, मस्तक नीचे किये, ध्यान की मुद्रा में, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित थे।
१. २.
देखें सूत्र-संख्या १८ देखें सूत्र-संख्या ६०