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________________ ११४ औपपातिकसूत्र ६३- तए णं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोऊहल्ले, उप्पण्णसड्डे उप्पणसंसए उप्पण्णकोऊहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोऊहल्ले, समुप्पण्णसड्ढे समुप्पणसंसए समुप्पण्णकोऊहल्ले उट्ठाए उढेइ, उट्ठाए उठ्ठित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं, पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे, णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी ६३– तब उन भगवान् गौतम के मन में श्रद्धापूर्वक इच्छा पैदा हुई, संशय—अनिर्धारित अर्थ में शंका जिज्ञासा एवं कुतूहल पैदा हुआ। पुनः उनके मन में श्रद्धा का भाव उमड़ा, संशय उभरा, कुतूहल समुत्पन्न हुआ। वे उठे, उठकर जहाँ भगवान् महावीर थे, आए। आकर भगवान् महावीर को तीन बार अदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दनानमस्कार किया। वैसा कर भगवान् के न अधिक समीप न अधिक दूर शुश्रूषा-सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, उनकी पर्युपासना-अभ्यर्थना करते हुए बोलेपापकर्म का बन्ध ६४- जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते पावकम्मं अण्हाइ ? हंता अण्हाइ। ६४- भगवन् ! वह जीव, जो असंयत है जिसने संयम की आराधना नहीं की, जो अविरत है—हिंसा आदि से विरत नहीं है, जिसने प्रत्याख्यान द्वारा पाप-कर्मों को प्रतिहत नहीं किया सम्यक् श्रद्धापूर्वक पापों का त्याग नहीं किया, हलका नहीं किया, जो सक्रिय कायिक, वाचिक तथा मानसिक क्रियाओं से युक्त है—क्रियाएं करता है, जो असंवृत है—संवर रहित है—जिसने इन्द्रियों का संवरण या निरोध नहीं किया, जो एकान्तदंड युक्त है जो अपने को तथा औरों को पापकर्म द्वारा एकान्तत: सर्वथा दण्डित करता है, जो एकान्तबाल है सर्वथा मिथ्या दृष्टि अज्ञानी है, जो एकान्तसुप्त है—मिथ्यात्व की निद्रा में बिल्कुल सोया हुआ है, क्या वह पाप-कर्म से लिप्त होता है—पापकर्म का बंध करता है ? हाँ, गौतम! करता है। ६५- जीवे णं भंते ! असंजए जाव (अविरए, अप्पडिहयपच्च्क्खायपावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे एगंतबाले) एगंतसुत्ते मोहणिजं पावकम्मं अण्हाइ ? हंता अण्हाइ। ६५- भगवन्! वह जीव, जो असंयत है जिसने संयम की आराधना नहीं की, जो अविरत है-हिंसा आदि से विरत नहीं है, जिसने प्रत्याख्यान द्वारा पाप कर्मों को प्रतिहत नहीं किया सम्यक् श्रद्धापूर्वक पापों का त्याग नहीं किया, हलका नहीं किया, जो सक्रिय कायिक, वाचिक तथा मानसिक क्रियाओं से युक्त है—क्रियाएं करता है, जो असंवृत है—संवर रहित है—जिसने इन्द्रियों का संवरण या निरोध नहीं किया, जो एकान्तदंडयुक्त है जो अपने को तथा औरों को पाप कर्म द्वारा एकान्ततः सर्वथा दण्डित करता है, जो एकान्त-बाल है—सर्वथा
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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