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________________ ११२ औपपातिकसूत्र भंते ! निग्गंथे पावयणे, धम्मं णं आइक्खमाणा तुब्भे उवसमं आइक्खह, उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह, विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह, वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह, णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा, जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए, किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ?" एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया, तामेव दिसं पडिगया। ५९- शेष परिषद् ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर कहा"भगवन्! आप द्वारा सुआख्यात—सुन्दर रूप में कहा गया, सुप्रज्ञप्त—उत्तम रीति से समझाया गया, सुभाषितहृदयस्पर्शी भाषा में प्रतिपादित किया गया, सुविनीत—शिष्यों में सुष्ठ रूप में विनियोजित अन्तेवासियों द्वारा सहजरूप में अंगीकृत, सुभावित प्रशस्त भावों से युक्त निर्ग्रन्थ-प्रवचन–धर्मोपदेश, अनुत्तर–सर्वश्रेष्ठ है। आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम क्रोध आदि के निरोध का विश्लेषण किया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक बाह्य ग्रन्थियों के त्याग को समझाया। विवेक की व्याख्या करते हुए आपने विरमण विरति या निवृत्ति का निरूपण किया। विरमण की व्याख्या करते हुए आपने पाप-कर्म न करने की विवेचना की। दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसे धर्म का उपदेश कर सके। इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहाँ ?" यों कहकर वह परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी ओर लौट गई। ६०- तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव' हियए उट्ठाए उढेइ, उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता गंमसित्ता एवं वयासी-"सुयक्खाए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव (धम्मं णं आइक्खमाणा तुब्भे उवसमं आइक्खह, उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह, विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह, वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह, णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए,) किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ?" एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए, तामेव दिसं पडिगए। ६०- तत्पश्चात् भंभसार का पुत्र राजा कूणिक श्रमण भगवान् से धर्म का श्रवण कर हृष्ट, तुष्ट हुआ, मन में आनन्दित हुआ। अपने स्थान से उठा। उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। वैसा कर वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर, वह बोला "भगवन् ! आप द्वारा सुआख्यात—सुन्दर रूप में कहा गया, सुप्रज्ञप्त—उत्तम रीति से समझाया गया, सुभाषित–हृदयस्पर्शी भाषा में प्रतिपादित किया गया, सुविनीतशिष्यों में सुष्ठ रूप में विनियोजित अन्तेवासियों द्वारा सहज रूप में अंगीकृत, सुभावित—प्रशस्त भावों से युक्त निर्ग्रन्थ-प्रवचन-धर्मोपदेश, अनुत्तर–सर्वश्रेष्ठ है। (आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम-क्रोध आदि के निरोध का विश्लेषण किया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक बाह्य ग्रन्थियों के त्याग को समझाया। विवेक की व्याख्या करते हुए आपने विरमण विरति या निवृत्ति का निरूपण किया। विरमण की व्याख्या करते हुए आपने पाप-कर्म न करने की विवेचना की। दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसे धर्म का उपदेश कर सके)। इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहाँ ?" १. देखें सूत्र-संख्या १८
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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