SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिषद्-विसर्जन मृषावाद से निवृत्त होना, ३. स्थूल अदत्तादान से निवृत्त होना, ४. स्वदारसन्तोष —अपनी परिणीता पत्नी तक मैथुन की सीमा, ५. इच्छा—परिग्रह की इच्छा का परिमाण या सीमाकरण। ३ गुणव्रत इस प्रकार हैं—१. अनर्थदण्ड-विरमण—आत्मा के लिए अहितकर या आत्मगुणघातक निरर्थक प्रवृत्ति का त्याग, २. दिग्व्रत विभिन्न दिशाओं में जाने के सम्बन्ध में मर्यादा का सीमाकरण, ३. उपभोग-परिभोगपरिमाण–उपभोग—जिन्हें अनेक बार भोगा जा सके ऐसी वस्तुएं जैसे वस्त्र आदि तथा परिभोग उन्हें एक ही बार भोगा जा सके-जैसे भोजन आदि–इनका परिमाण–सीमाकरण। ४ शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं—१. सामायिकसमता या समत्वभाव की साधना के लिए एक नियत समय (न्यूनतम एक मुहूर्त-४८ मिनट) में किया जाने वाला अभ्यास, २. देशावकाशिक-नित्य प्रति अपनी प्रवृत्तियों में निवृत्ति-भाव की वृद्धि का अभ्यास।३. पोषधोपवासअध्यात्म-साधना में अग्रसर होने हेतु यथाविधि आहार, अब्रह्मचर्य आदि का त्याग तथा ४. अतिथि-संविभाग जिनके आने की कोई तिथि नहीं, ऐसे अनिमंत्रित संयमी साधकों को, साधर्मिक बन्धुओं को संयमोपयोगी एवं जीवनोपयोगी अपनी अधिकृत सामग्री का एक भाग आदरपूर्वक देना, सदा मन में ऐसी भावना बनाए रखना कि ऐसा अवसर प्राप्त हो। . तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखना-तपश्चरण, आमरण, अनशन की आराधनापूर्वक देहत्याग श्रावक की इस जीवन की साधना का पर्यवसान है, जिसकी एक गृही साधक भावना लिए रहता है। ___भगवान् ने कहा—आयुष्मान् ! यह गृही साधकों का आचरणीय धर्म है। इस धर्म के अनुसरण में प्रयत्नशील होते हुए श्रमणोपासक-श्रावक या श्रमणोपासिका श्राविका आज्ञा के आराधक होते हैं। परिषद्-विसर्जन ५८- तए णं सा महतिमहालिया मणूसपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव' हियया उठाए उढेइ, उट्टित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता अत्थेगइया मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा। ५८- तब वह विशाल मनुष्य-परिषद् श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर, हृदय में धारण कर, हृष्टतुष्ट—अत्यन्त प्रसन्न हुई, चित्त में आनन्द एवं प्रीति का अनुभव किया, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित हृदय होकर उठी। उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा, वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर उनमें से कई गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर मुंडित होकर, अनगार या श्रमण के रूप में प्रव्रजित दीक्षित हुए। कइयों ने पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहि-धर्मश्रावक-धर्म स्वीकार किया। ५९- अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी"सुअक्खाए ते भंते! निग्गंथे पावयणे एवं सुपण्णत्ते, सुभासिए, सुविणीए, सुभाविए, अणुत्तरे ते १. देखें सूत्र संख्या १८
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy