________________
१०२
औपपातिकसूत्र __ ५२- तदनन्तर भंभसार का पुत्र राजा कूणिक चम्पानगरी के बीचोंबीच होता हुआ आगे बढ़ा। उसके आगेआगे जल से भरी झारियाँ लिये पुरुष चल रहे थे। सेवक दोनों ओर पंखे झल रहे थे। ऊपर सफेद छत्र तना था। चंवर ढोले जा रहे थे। वह सब प्रकार की समृद्धि, सब प्रकार की द्युति—आभा, सब प्रकार के सैन्य, समुदय-सभी परिजन, समादरपूर्ण प्रयत्न, सर्वविभूति—सब प्रकार के वैभव, सर्वविभूषा-सब प्रकार की वेशभूषा-वस्त्र, आभरण आदि द्वारा सज्जा, सर्वसम्भ्रम-स्नेहपूर्ण उत्सुकता, सर्व-पुष्पगन्धमाल्यालंकार—सब प्रकार के फूल, सुगन्धित पदार्थ, फूलों की मालाएं, अलंकार या फूलों की मालाओं से निर्मित आभरण, सर्व तूर्यशब्द-सन्निपातसब प्रकार के वाद्यों की ध्वनि-प्रतिध्वनि, महाऋद्धि-अपने विशिष्ट वैभव, महाद्युति—विशिष्ट आभा, महाबलविशिष्ट सेना, महासमुदय—अपने विशिष्ट पारिवारिक जन-समुदाय से सुशोभित था तथा शंख, पणव—पात्र-विशेष पर मढ़े हुएं ढोल, पटह—बड़े ढोल, छोटे ढोल, भेरी, झालर, खरमुही-वाद्य, हुडुक्क वाद्य विशेष, मुरजढोलक, मृदंग तथा दुन्दुभि-नगाड़े एक साथ विशेष रूप से बजाए जा रहे थे।
__ ५३- तए णं तस्स कूणियस्स रण्णो चंपाए णयरीए मझमझेणं निग्गच्छमाणस्स बहवे अत्थत्थिया, कामत्थिया, भोगत्थिया, लाभत्थिया किव्विसिया, करोडिया, कारवाहिया, संखिया, चक्किया, नंगलिया, मुहमंगलिया, वद्धमाणा, पूसमाणया, खंडियगणा ताहिं इठ्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं मणाभिरामाहिं हिययगमणिजाहिं वग्गूहिं जयविजयमंगलसएहिं अणवरयं
अभिणंदंता य अभित्थुणंता य एवं वयासी–जय जय णंदा! जय जय भद्दा! भदं ते अजियं जिणाहि, जियं च पालेहि, जियमझे वसाहि। इंदो इव देवाणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इव मणुयाणं बहूई वासाई, बहूई वाससयाई, बहूई वाससहस्साई अणहसमग्गो, हट्टतुट्ठो परमाउं पालयाहि, इट्ठजणसंपरिवुडो चंपाए णयरीए अण्णेहिं च बहूणं गामागर-णयर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगम-संवाह-संनिवेसाणं आहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं, महत्तरगत्तं, आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे, पालेमाणे महयाहयनZगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुअंगपडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहराहित्ति कटु जय जय सदं पउंजंति।
५३- जब राजा कूणिक चंपा नगरी के बीच से गुजर रहा था, बहुत से अभ्यर्थी—धन के अभिलाषी, कामार्थी-सुख या मनोज्ञ शब्द तथा सुन्दर रूप के अभिलाषी, भोगार्थी—सुखप्रद गन्ध, रस एवं स्पर्श आदि के अभिलाषी, लाभार्थी —मात्र भोजन आदि के अभिलाषी, किल्विषिक–भांड आदि, कापालिक खप्पर धारण करने वाले भिक्षु, करबाधित—करपीडित राज्य के कर आदि से कष्ट पाने वाले, शांखिक शंख बजाने वाले, चाक्रिक-चक्रधारी, लांगलिक हल चलाने वाले कृषक, मुखमांगलिक-मुंह से मंगलमय शुभ वचन बोलने वाले या खुशामदी, वर्धमान औरों के कन्धों पर स्थितपुरुष, पूष्यमानव-मागध-भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, खंडिकगण-छात्र-समुदाय, इष्ट-वाञ्छित, कान्त-कमनीय, प्रिय-प्रीतिकर, मनोज्ञ मनोनुकूल, मनाम-चित्त को प्रसन्न करने वाली, मनोभिराम मन को रमणीय लगने वाली तथा हृदयगमनीय हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाली वाणी से एवं जय विजय आदि सैकड़ों मांगलिक शब्दों से राजा का अनवरत लगातार अभिनन्दन करते हुए, अभिस्तवन करते हुए प्रशस्ति कहते हुए इस प्रकार बोले—जन-जन को आनन्द देने वाले राजन् ! आपकी जय