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________________ दर्शन-लाभ १०३ हो, आपकी जय हो। जन-जन के लिए कल्याण-स्वरूप राजन् ! आप सदा जयशील हों। आपका कल्याण हो। जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें। जिनको जीत लिया है, उनका पालन करें। उनके बीच निवास करें। देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागों में धरणेन्द्र की तरह, तारों में चन्द्रमा की तरह, मनुष्यों में चक्रवर्ती भरत की तरह आप अनेक वर्षों तक, अनेक शत वर्षों तक, अनेक सहस्र वर्षों तक, अनेक लक्ष वर्षों तक अनघसमग्र सर्व प्रकार के दोष या विघ्न रहित अथवा संपत्ति, परिवार आदि से सर्वथा सम्पन्न, हृष्ट, तुष्ट रहें और उत्कृष्ट आयु प्राप्त करें। आप अपने इष्ट—प्रिय जन सहित चंपानगरी के तथा अन्य बहुत से ग्राम, आकर-नमक आदि के उत्पत्ति स्थान, नगर-जिनमें कर नहीं लगता हो, ऐसे शहर, खेट–धूल के परकोटे से युक्त गाँव, कर्बटअति साधारण कस्बे, द्रोण-मुख-जल-मार्ग तथा स्थल-मार्ग से युक्त स्थान, मडंब आस-पास गाँव-रहित बस्ती, पत्तन—बन्दरगाह अथवा बड़े नगर, जहाँ या तो जलमार्ग से या स्थलमार्ग से जाना संभव हो, आश्रमतापसों के आवास, निगम-व्यापारिक नगर, संवाह —पर्वत की तलहटी में बसे गांव, सन्निवेश झोंपड़ियों से युक्त बस्ती अथवा सार्थवाह तथा सेना आदि के ठहरने के स्थान इन सबका आधिपत्य, पौरोवृत्त्य—अग्रेसरता या आगेवानी, स्वामित्व, भर्तृत्व—प्रभुत्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्व-सैनापत्य-जिसे आज्ञा देने का सर्व अधिकार होता है, ऐसा सैनापत्य–सेनापतित्व—इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करते हुए निर्बाध निरन्तर अविच्छिन्न रूप में नृत्य, गीत, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य तुरही एवं घनमृदंग-बादल जैसी आवाज करने वाले मृदंग के निपुणतापूर्ण प्रयोग द्वारा निकलती सुन्दर ध्वनियों से आनन्दित होते हुए, विपुल–प्रचुर—अत्यधिक भोग भोगते हुए सुखी रहें, यों कहकर उन्होंने जय-घोष किया। दर्शन-लाभ ५४ - तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते नयणमालासहस्सेहिं पेच्छिज्जमाणे पेच्छिजमाणे, हिययमालासहस्सेहिं अभिणंदिजमाणे अभिणंदिज्जमाणे, उन्नइज्जमाणे मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्वमाणे अभिथुव्वमाणे, कंति-सोहग्गगुणेहिं पत्थिजमाणे पत्थिजमाणे, बहूणं नरनारिसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे, भवणपंतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे चंपाए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छइत्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासइ, पासित्ता आभिसेक्कं हत्थिरयणं ठवेइ, ठवित्ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता अवहट्ट पंच रायकउहाइं, तं जहा खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाओ बालवीयणिं, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तं जहा—१ सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए, २ अचित्ताणं दव्वाणं अविओसरणयाए, ३ एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं, ४ चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, ५ मणसो एगत्तीभावकरणेणं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, वंदित्ता नमसइ, नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासइ, तं जहा–काइयाए, वाइयाए, माणसियाए। काइयाए-ताव संकुइयग्गहत्थपाए सुस्सूस
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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